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१. सत्यका मार्ग शूरोंके लिए ही है[१]

जुलाई १९२०

"सत्यका मार्ग शूरोंके लिए ही है; इसमें कायरोंका कोई काम नहीं है।"[२]इस कविताका मर्म मैं दिन-दिन अधिकाधिक समझ रहा हूँ। मैं यह भी देखता हूँ कि इस बातमें जो विचार निहित है उसका आचरण केवल बड़े लोग ही करें, बालक या विद्यार्थी न करें, ऐसी बात नहीं है। सत्यके मार्गकी खोज और उसका अनुसरण बचपनसे ही किया जाये तभी बड़े होनेपर हम असत्यसे बच सकते हैं। जिस प्रकार हम किसी बीमारीकी उपेक्षा करें तो वह हमारे शरीरमें घर कर लेती है और असाध्य हो जाती है, उसी प्रकार यदि हम बचपनसे अपने भीतर असत्यको घर कर लेने दें तो आगे चलकर वह एक महाव्याधिका रूप ले लेता है। वह असाध्य-जैसा हो जाता है और हमें लगातार क्षीण करता रहता है। यही कारण है कि हम देखते हैं कि हमारे भीतर असत्य बढ़ रहा है।

इसलिए विद्यार्थी जीवन में हमें जो ऊँचेसे-ऊँचा पाठ पढ़ना है, वह है— सत्यकी खोज और उसके अनुसार आचरण।

यह मार्ग शूरोंका है क्योंकि हिमालयपर चढ़नेवालोंके लिए जिस पराक्रमकी जरूरत है सत्यकी खड़ी सीढ़ीपर चढ़ने में उससे भी ज्यादा पराक्रमकी आवश्यकता है। इसलिए यदि हमें इस जन्ममें कुछ भी पुरुषार्थ करना है और अपना कल्याण करना है तो हमें सत्यको पहला स्थान देना चाहिए और उसमें अविचल श्रद्धा रखकर आगे बढ़ते जाना चाहिए। सत्य ही परमेश्वर है।

मोहनदास

[गुजरातीसे]
मधपुडो, १/२

 

१८-१

  1. यह लेख आश्रमको हस्तलिखित पत्रिका मधपुडोके लिए लिखा गया था।
  2. अठारहवीं शताब्दीके गुजराती कवि प्रीतमदासकी एक प्रसिद्ध कविताकी पहली पंक्ति।