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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


तो हमें अव्यवस्थामें से व्यवस्थाका निर्माण करना है। और मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि इसका सबसे अच्छा और त्वरित उपाय है भीड़के शासनके स्थानपर जनताका शासन लागू करना।

इस मार्गमें एक बाधा यह है कि हमने संगीतकी उपेक्षा कर दी है। संगीतका मतलब है लय, व्यवस्था। इसका असर बिजलीके समान होता है। यह मनके उद्वेलनको तुरन्त शान्त करता है। यूरोपीय देशोंमें देखा है कि कोई-कोई सूझ-बूझवाला पुलिस सुपरिटेंडेंट कोई लोकप्रिय धुन बजवाना शुरू करके भीड़की शरारती प्रवृत्तिपर बहुत आसानीसे काबू पा लेता है।[१]दुर्भाग्यवश हमारे शास्त्रोंकी तरह ही संगीत कुछ विशेष लोगोंकी सम्पत्ति बन गया है। उससे या तो वेश्याएँ अपनी रोजी कमाती हैं या फिर उच्च कोटिके भक्तजन भगवद्भजनके लिए उसका उपयोग करते हैं। आधुनिक अर्थोंमें कभी भी इसका राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ है। अगर स्वयंसेवकों, बालचरों और सेवा समिति आदि संगठनोंपर मेरा कोई बस चले तो मैं समवेत स्वरमें राष्ट्रीय गीतोंका तालबद्ध गायन अनिवार्य कर दूँ। और इस उद्देश्यसे मैं हर कांग्रेस या सम्मेलनमें बड़े-बड़े संगीतज्ञोंको बुलाकर लोगोंको समूह-गानकी शिक्षा दिलाऊँ।

स्वयंसेवकोंसे बहुत अधिक अनुशासन, तौर-तरीके और ज्ञानकी अपेक्षा की जानी चाहिए; जिस-तिस अधकचरे व्यक्तिको स्वयंसेवकका पूरा दर्जा नहीं दे देना चाहिए। ऐसे स्वयंसेवक सहायक होनेके बजाय बाधक ही सिद्ध होते हैं। आप एक ही अप्रशिक्षित सैनिकके किसी युद्ध-सेनामें प्रवेश पा जानेके परिणामकी कल्पना कीजिए। वह क्षण-भरमें सारी सेनामें अव्यवस्था पैदा कर सकता है। मुझे असहयोगके सम्बन्धमें जो सबसे बड़ी चिन्ता है उसका कारण इसके प्रति नेताओंके उत्साहकी कमी नहीं; सद्भावना अथवा दुर्भावनासे प्रेरित आलोचना तो कदापि नहीं; और असहयोग आन्दोलनका दमन होनेकी, चाहे वह दमन कितना भी कठोर हो, तो कतई चिन्ता नहीं है। यह आन्दोलन इन बाधाओंपर तो विजय पा ही लेगा; बल्कि इनसे उसे बल भी मिलेगा। लेकिन सबसे बड़ी बाधा यह है कि हम अबतक भीड़शाहीकी अवस्थासे नहीं निकल पाये हैं। और मेरे सन्तोषका कारण यह है कि भीड़को प्रशिक्षित करनेसे ज्यादा आसान काम और कोई नहीं है। कारण सिर्फ इतना ही है कि भीड़ विचारशील नहीं होती और वह किसी विषयपर पहलेसे ही कोई धारणा नहीं बनाये रहती। वह तो आवेशके अतिरेकमें कोई काम कर गुजरती है, और जल्दी ही पश्चात्ताप भी करने लगती है। अलबत्ता हमारी सुसंगठित सरकार पश्चात्ताप नहीं करती——जलियाँ- वाला, लाहौर, कसूर, अकालगढ़, रामनगर आदि स्थानोंपर किये गये अपने दुष्टतापूर्ण अपराधोंके लिए खेद प्रकट नहीं करती। लेकिन गुजराँवालाकी पश्चात्ताप करती हुई भीड़की आँखोंमें मैंने आँसू ला दिये हैं और अन्यत्र भी मैं जहाँ कहीं गया, वहाँ अप्रैलके उस घटनापूर्ण महीनेमें भीड़में शामिल होकर शरारत करनेवाले लोगोंसे मैंने खुलेआम पश्चात्ताप करवाया है। इसलिए अब मैं असहयोगका उपयोग लोकतंत्रके

  1. पुलिस सुपरिटेंडेंट भलेक्जैंडरने इसी प्रकार १८९७ में डर्बनको भीड़से गांधीजीकी रक्षा की थी। देखिए आत्मकथा, भाग ३, अध्याय ३ ।