भावनाओंके ही प्रदर्शन होते हैं। खिलाफतके सवालको लेकर मैंने पंजाब, सिन्ध और मद्रासकी जो अविस्मरणीय यात्राकी उसमें मुझे ऐसे प्रदर्शनोंको देखनका बहुत अनुभव हुआ। रेलवे स्टेशनोंपर मुझे अक्सर यह देखकर लज्जा आई है कि प्रदर्शनकारियोंने अपने नेताओंके प्रति आदरके जोशमें हर चीज और हर एकको भूला दिया और अविचारके कारण, हालाँकि अनजाने ही, यात्रियोंके सामान आदिको बरबाद कर डाला। ये प्रदर्शनकारी बेसुरी और कर्कश आवाज करते हैं, जिससे इनके नेताओंको बड़ी परेशानी होती है। वे एक-दूसरेको रौंद डालते हैं। सभी एक ही साथ शान्ति और व्यवस्थाके पवित्र नामपर शोर मचाने लगते हैं। दस स्वयंसेवकोंको एक साथ एक ही आदेश देते सुना गया है। स्वयंसेवक जनताके रक्षक बने रहनेके बजाय, प्रायः स्वयं ही प्रदर्शनकारी बन जाते हैं। सभाओंमें स्वयंसेवकोंकी श्रृंखला जहाँ-तहाँसे टूट जाती है, और उन टूटी श्रृंखलाओंके बीचसे होकर, सभा-मंचसे अपने लिए लाई गई गाड़ीतक नेताओंको पहुँचानेका काम अक्सर खतरनाक होता है, और असुविधाजनक तो खैर सदैव ही होता है। इस काममें उन्हें पाँच मिनटसे अधिकका समय नहीं लगना चाहिए। लेकिन अक्सर ऐसा हुआ है कि एक-एक घंटा लग गया है। भीड़ पीछे खिसककर रास्ता देनेके बजाय अपने प्यारे नेताओंकी ओर ही जाती है, और इसलिए उनकी सुरक्षाकी व्यवस्था करनी पड़ती है। नेताओंके लिए लाई गई गाड़ीपर जो चाहता है, वही चढ़ जाता है, और यह अपराध सबसे अधिक स्वयंसेवक लोग ही करते हैं। नेताओंको और गाड़ीपर बैठनेके अधिकारी अन्य व्यक्तियोंको इस प्रकार चढ़े हुए लोगोंको समझाना पड़ता है कि उन्हें लापरवाहीसे गाड़ीके पायदानपर नहीं चढ़ना चाहिए। प्रदर्शनकारी लोग गाड़ीके हुडको जैसे-तैसे पकड़ लेते हैं जिससे उसको नुकसान पहुँचता है। ऐसे बहुत कम अवसर आये हैं, जब मैंने देखा हो कि भीड़ने गाड़ीके हुडको सही-सलामत रहने दिया हो। रास्ते में भीड़ सड़कके दोनों ओर कतार बाँधकर खड़ी होनेके बजाय गाड़ीके पीछे-पीछे चलने लगती है। परिणामतः बड़ी हुल्लड़बाजी मच जाती है, हर क्षण दुर्घटनाकी आशंका रहती है और अगर ऐसे प्रदर्शनोंमें कोई दुर्घटना नहीं होती तो उसका कारण संयोजकोंका कौशल नहीं बल्कि यह है कि भीड़ सारे धक्कमधक्के बरदाश्त करके पूरी तरह प्रसन्न रहनेको कृतसंकल्प होती है। हर व्यक्ति दूसरोंको धक्के देता है, लेकिन कोई भी अपनी बगलमें खड़े किसी व्यक्तिको परेशान नहीं करना चाहता। और अन्तमें आता है सभाका दृश्य, जो बराबर अधिकाधिक चिन्ताका कारण बनता जा रहा है। वहाँ आपको जो-कुछ देखने और झेलनेको मिलता है वह है अव्यवस्था, कोलाहल, धक्कम-धक्का, चीख-पुकार। आखिरको जब कोई अच्छा वक्ता बोलने लगता है तब अलबत्ता ऐसी शान्ति कायम हो जाती है कि आप सूई गिरनेकी आवाज भी सुन सकते हैं।
लेकिन जो भी हो यह है भीड़शाही ही। आप भीड़की दयापर निर्भर होते हैं। जबतक आपके और भीड़के बीच परस्पर सहानुभूतिका भाव है तबतक सब कुछ ठीक-ठीक चलता है। लेकिन जहाँ यह सहानुभूतिकी डोर टूटी कि स्थिति भयंकर हो जाती है। अहमदाबादके ढंगकी जो दुर्घटनाएँ जब-तब होती रहती हैं, उनसे आप भीड़की प्रवृत्तियाँ समझ सकते हैं।