गाड़ीके पास पहुँचनेपर और रास्तेमें काफी अन्तराल देकर करना चाहिए। किसीको इस आधारपर आपत्ति करनेकी जरूरत नहीं कि इस तरह तो प्रदर्शन बिलकुल यन्त्रवत् हो जायेगा और उसका स्वयंस्फूर्त रूप समाप्त हो जायेगा। प्रदर्शन कितना स्वयंस्फूर्त है, यह बार-बार और जोरोंसे तरह-तरहके नारे लगानेपर नहीं बल्कि इस बातपर निर्भर करेगा कि प्रदर्शनमें कितने लोग शामिल हैं और उनके चेहरेपर कैसा भाव है। किसी भी राष्ट्रके प्रदर्शनका स्वरूप वैसा ही होता है जिस ढंगका उसे प्रशिक्षण दिया जाता है। मसजिदमें चुपचाप इबादत करनेवाले मुसलमानको देखनेवाले के मनपर उससे कुछ कम प्रभाव नहीं पड़ता जितना प्रभाव मन्दिरमें जाकर अपनी आवाजसे या घंटी बजाकर अथवा दोनों तरहसे बहुत ही शोर मचाकर पूजा करनेवाले हिन्दूका पड़ता है।
१३. सड़कपर भीड़को कतार बाँधकर खड़े रहना चाहिए और नेताओंकी गाड़ियोंके पीछे-पीछे नहीं चल पड़ना चाहिए। अगर आगे बढ़ते हुए जुलूसमें पैदल चलनेवाले लोग शामिल हों तो उन्हें चुपचाप सुव्यवस्थित ढंगसे अपने-अपने स्थान ले लेने चाहिए और ऐसा नहीं करना चाहिए कि जब मर्जी हुई जुलूसमें शामिल हो गये और जब मर्जी हुई उससे निकल गये।
१४. भीड़को अपने सम्मान्य नेताओंकी ओर नहीं बढ़ते जाना चाहिए बल्कि उन्हें स्थान देनेके लिए उनसे जरा अलग हट जाना चाहिए।
१५. जो लोग भीड़के किनारेपर हों उन्हें आगेकी ओर ठेलना नहीं चाहिए बल्कि जब उनकी ओर दबाव पड़े तो उन्हींको पीछे हटना चाहिए।
१६. अगर भीड़में स्त्रियाँ हों तो उनकी विशेष रूपसे रक्षा की जानी चाहिए।
१७. छोटे बच्चोंको भीड़के बीच कभी नहीं लाना चाहिए।
१८. सभाओंमें स्वयंसेवकोंको भीड़के बीच यत्र-तत्र खड़ा कर देना चाहिए। उन्हें झंडे तथा बिगुलके संकेत सीख लेने चाहिए, ताकि जब आवाज देकर एकके लिए कोई हिदायत दूसरेतक पहुँचाना असम्भव हो जाये तो वह इन संकेतोंके द्वारा ऐसा कर सके।
१९. व्यवस्था बनाये रखना श्रोताओंका काम नहीं है। वे तो अपनी जगहपर चुपचाप बैठे रहकर ही व्यवस्था बनाये रखनेमें मदद दे सकते हैं।
२०. और सबसे बड़ी बात यह है कि हर व्यक्तिको बिना कोई सवाल-जवाब किये स्वयंसेवकोंकी हिदायतें मान लेनी चाहिए।
यह कोई सब दृष्टिसे पूर्ण सूची नहीं है। यह तो मात्र उदाहरणस्वरूप पेश कर दी गई है, और इसका उद्देश्य लोगोंको सोचने और आपसमें विचार-विमर्श करनेकी प्रेरणा देता है। आशा है देशी भाषाओंके सभी अखबार इस लेखका अनुवाद प्रस्तुत करेंगे।
यंग इंडिया, ८-९-१९२०