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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सरकारपर लगाते हैं, अर्थात् वह उनके दृष्टिकोणपर विचार किये बिना निर्णय कर लेती है। सरकारके विरुद्ध असहयोगकी सफलता और उसकी सम्भावना इस बातपर आधारित है कि हमारे अपने बीच सहयोग है या नहीं। जहाँतक हो सके हमें अपने सिद्धान्तोंके अनुरूप निरन्तर आपसमें सौहार्द बढ़ाना चाहिए। इसका रास्ता हुल्लड़बाजी कदापि नहीं हो सकता। उक्त सभाओं में हुल्लड़ मचाकर असहयोगवादियोंने अपने प्रति श्रीमती बेसेंट और उनके मित्रों तथा अनुयायियोंकी सद्भावना और सहानुभूति और भी कम कर ली और इससे उन्हें कोई नये समर्थक मिल गये हों सो तो है ही नहीं। जहाँतक विद्यार्थियोंका सम्बन्ध है श्रीमती बेसेंटका अपमान करके उन्होंने अपने विकासके नाजुक समय में अपने ऊपर एक कलंक लगा लिया। धर्म और देशके नामपर उनसे कहा जाता है कि यदि उनके माता-पिता उन्हें सरकारी इमदाद या संरक्षणमें चलनेवाले स्कूलोंको छोड़ने से विमुख करना चाहें तो वे उनकी आज्ञाकी उपेक्षा कर दें। ऐसा वही सन्तान कर सकती है जिसके मनमें माता-पिता और बड़ोंके प्रति धर्मसम्मत आदर और आज्ञापालनका भाव जागृत है। आज्ञाका उल्लंघन सद्गुण केवल तभी हो सकता है जब वह किसी अधिक ऊँचे उद्देश्यके लिए किया जाये और उसमें कटुता, द्वेष या क्रोध न हो। उनकी आज्ञाका विचारहीन, उद्दण्डता और हुल्लड़बाजीपूर्ण उल्लंघन तो निश्चय ही दोष है। एक ऊँचा उठानेवाला और दूसरा नीचे गिरानेवाला है। और फिर श्रीमती बेसेंटकी आयु, उनकी पिछली महान् सेवाएँ और उनका नारी होना क्या हमारे निकट कुछ भी मूल्य नहीं रखता? आनेवाली पीढ़ीके प्रति कृतघ्न बन जाना अपनी आत्महत्या कर लेना ही है। भारतकी कृतज्ञता तो ऐसी होनी चाहिए थी कि श्रीमती बेसेंट भारतकी भावनाओंका विरोध भी करें तो भी लोग सम्मानपूर्वक उनकी बात सुनें। उसमें उनका उद्देश्य शुद्ध है। वे मानती हैं कि हम गलतीपर हैं और उनकी रायमें हम भारतकी प्रगति में बाधक हो रहे हैं। जिसे वे हमारी गलती मानती हैं, हमें उससे विलग करनेका प्रयत्न निश्चय ही उनके लिए कर्त्तव्य है, और उस समय हमारा कर्त्तव्य हो जाता है कि वे जो कुछ कहती हैं, उसपर सादर विचार करें।

परन्तु लोगोंने मुझसे यह कहा कि यदि उनकी सभाओं में जोरदार विरोधी स्वर नहीं व्यक्त किया जाता तो वे हमारे मौनका पूरा-पूरा लाभ उठायेंगी और जितन लोग उनके साथ हैं उससे अधिक लोगोंके साथ होनेका दावा करेंगी। किन्तु विरोध व्यक्त करनेका एकमात्र तरीका हुल्लड़बाजी नहीं है। सबसे अच्छा और चुनिन्दा तरीका तो यह होगा कि हम उनकी सभाओं में तभी शामिल हों जब हमें उनकी बातको समझना जरूरी लगे। जब हम जानते हैं कि हम उनके विचारोंसे सहमत नहीं हैं तो हमें उनके श्रोतृसमुदायको संख्या नहीं बढ़ानी चाहिए। और यदि हम उनकी सभामें जाना ही चाहें तो दूसरा तरीका यह है कि सभाके अन्त में सादर अपना विरोध दर्ज करा दें या यदि हम उनकी उक्तियोंको चोट पहुँचानेवाली समझें तो शिष्टतापूर्वक सभासे उठ जायें और इस तरह अपना विरोध व्यक्त करें। शोरगुल मचाना हमारी दुर्बलताका सूचक है। शिष्टतापूर्वक उठकर चले जाना हमारी शक्तिका प्रमाण है। यदि सभामें ज्यादातर लोग वहीं हों जिन्हें अपनी शक्तिका भान है तो वक्ता और