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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करना आत्मघातक होगा। मैंने उन्हें यह भी बताया कि यदि असहयोगी हिंसा करेंगे तो वह सर्वनाशको आमन्त्रित करना होगा क्योंकि उससे तो अंग्रेजोंको पूरेके-पूरे समाजको नष्ट कर देनेका बहाना मिल जायेगा। यह मैंने अवश्य कहा कि यदि मुझसे बना तो मैं हिन्दू-मुसलमान दोनोंको किसी भी हिंसात्मक आन्दोलनकी मदद करनेसे विमुख करूँगा और जिस सम्भावनाकी बात कही गई है उसके डरसे भी मैं सरकारके विरुद्ध छेड़े गये संघर्षसे बाज नहीं आऊँगा।

इस प्रकार मेरे कथनका जो सारांश पत्र-लेखकने दिया है वह मेरे प्रति अन्याय ही है। मैं लेखकको नहीं जानता और न मैंने वह पत्र ही देखा है जिसका उद्धरण मुझे बाबू कालिनाथ रायने भेजा है। मुझे यह जरूर याद है कि सिख लीगमें एक वक्ताने अपने भाषणमें बातचीतका सार दिया था। उसका भाषण गुरमुखीमें था और जहाँतक मैं उसे समझ सका, मैं समझता हूँ कि उसने मेरी बातोंका सार सही-सही दुहराया था।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १७-११-१९२०

 

२६९. श्री डगलसका उत्तर

लखनऊ
१२ नवम्बर, १९२०

सेवामें
सम्पादक
'यंग इंडिया'
महोदय,

१० तारीखके 'इंडिपेंडेंट' में आपके पत्रसे लेकर श्री गांधीका 'लखनऊके भाषण' शीर्षक जो लेख[१]प्रकाशित किया गया है, मैं उसके सिलसिलेमें आपसे अपने स्तम्भमें स्थान देनेका सौजन्य दिखाने की प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि उसमें श्री गांधीने मुझे एक तरहसे "अपनी स्थिति स्पष्ट करने" की चुनौती दी है। व्यक्तिगत रूपसे मैं नहीं समझता कि कोई ऐसी चीज है जिसे मेरी तरफसे स्पष्ट करनेकी आवश्यकता हो। 'इंडियन डेली टेलीग्राफ'को मेरा २३ अक्तू- बरका पत्र, यद्यपि जान-बूझकर संक्षिप्त रूपसे लिखा गया है, मेरे सामने है ही और जिनके आँखें हैं, वे उसमें क्या लिखा गया है सो देख सकते हैं। जो देखना नहीं चाहते, उन्हें समझा सकनेकी मैं आशा नहीं रखता। मेरे मौनका गलत अर्थ निकाला जा सकता है, अन्यथा मैं अब इस मामलेमें कुछ और न कहना ही पसन्द करता। मैं जो लिख रहा हूँ सो अनिच्छापूर्वक ही
  1. ३-११-१९२० के यंग इंडियामें प्रकाशित।