लिख रहा हूँ; क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझे इसमें धर्मोकी बातका उल्लेख तो करना ही पड़ेगा; परन्तु मैं पूरी कोशिश करूँगा कि किसी की भावनाओं और धार्मिक मान्यताओंको ठेस न पहुँचे।
श्री गांधीका कहना है कि मैंने १५ अक्तूबरको सभामें विरोध नहीं किया और बादमें भी उनसे शिकायत नहीं की। मैंने ऊबकर सभा छोड़ दी थी इसलिए वहाँ विरोध करनेकी बात ही नहीं उठती, फिर आजकल राजनैतिक सभाओंमें श्रोताओंकी जो मनःस्थिति होती है, उसे ध्यानमें रखते हुए इसमें भी बहुत सन्देह है कि यदि मैं विद्वान् मौलानाओंके भाषणोंका विरोध प्रकट करनेको उठता भी तो मेरी बात सुनी जाती या नहीं। रही श्री गांधीसे शिकायत करनेकी बात, सो इस मामलेका सम्बन्ध मुझसे और मेरे भावी आचरणसे, केवल असहयोगी होनेके नाते नहीं वरन् एक ईसाई होने के नाते भी है। श्री गांधीके लिए मेरे मनमें चाहे जितना आदरभाव हो, एक ईसाईके नाते मैं उन्हें अपने आचरणका निर्देशक बनाने और उनकी सलाह लेनेसे इनकार करता हूँ।
श्री गांधी यह भी कहते हैं कि विवरणमें एक बात गलत थी किन्तु उनके भाषणकी प्रकाशित रिपोर्टके लिए जिम्मेदार महादेव देसाई हैं, मैं नहीं। बात जिस तरह पेश की गई है उससे मेरे प्रति अन्याय होता है, बस इतना ही मैं गलतफहमी बचानेके लिए कहता हूँ।
अब रही मौलानाओंके भाषण और उनके परिणामस्वरूप असहयोग आन्दोलनसे मेरे हटने की बात। २१ अक्तूबरके मेरे पत्रका सारांश यह है कि एक ईसाईका 'काफिर' कहकर उल्लेख किया गया और उसके हत्यारेको शहीद बताया गया था और मेरी रायमें इस कथनका अभिप्राय उस हत्याके दोषका मार्जन करना था। 'काफिर' शब्दके प्रयोगको स्वीकार तो किया गया, किन्तु श्री गांधी अपने जवाबमें कहते हैं कि बिशप हेबरने हिन्दुओंको काफिर (हीदन) बताया था और आज अनेकों ईसाई गिरजाघरोंमें पूरीकी-पूरी मानव-जातिके प्रति घृणापूर्ण बातें कही जाती हैं। इस प्रकारके तर्कसे वकालतकी बू आती है और मुझे आश्चर्य है कि श्री गांधी-जैसा प्रख्यात व्यक्ति मूल विषयसे इतनी दूर कैसे चला गया। लखनऊमें १५ अक्तूबरके भाषण किसी मन्दिर, मस्जिद या गिरजाघरसे नहीं दिये गये थे। यदि मुझे बयान करनेकी अनुमति दी जाये तो वे भाषण एक राष्ट्रीय मंचसे दिये गये थे, जिस मंचसे श्री गांधी अपने कई लेखोंमें भारतीय ईसाइयों और यहूदियोंका आह्वान कर चुके हैं; और ये भाषण ऐसे वैसे कट्टर, भक्त मौलवियोंके नहीं वरन इस आन्दोलनके अग्रणी लोगोंके थे। जिस सभामें वे भाषण दिये गये थे, वह एक राजनैतिक सिद्धान्तके पोषणार्थ हुई थी। श्री गांधीने मेरे पत्रके उस अंशपर विचार नहीं किया जिसमें मैंने कहा कि 'हत्यारे' को शहीद बताया गया है और न उन्होंने अपने लेखमें यही कहा है कि उस शब्दके प्रयोगका आगे-पीछे कभी किसीके द्वारा प्रतिवाद किये जानेकी गुंजाइश नहीं थी। मैं जोर देकर कहता हूँ कि इस शब्दका प्रयोग मौलाना शौकत अलीने