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सात

व्यक्तिगत रूपसे इसी प्रकारके आत्मशासनको लानेका प्रयत्न कर रहे हैं, किन्तु साथ ही उन्होंने यह स्वीकार किया कि भारत अभीतक ऐसे आत्मशासनके लिए तैयार नहीं है और इसलिए वे सार्वजनिक रूपसे जो संघबद्ध कार्य कर रहे हैं वह निश्चय ही “भारतीय जनताकी आकांक्षाओंके अनुरूप संसदीय ढंगका स्वराज्य प्राप्त करनेकी दृष्टिसे” किया जा रहा है। (पृष्ठ २८३)

प्राचीन परम्पराके अनुयायियोंने भी गांधीजीके विचारोंका दृढ़ताके साथ विरोध किया किन्तु उसका असर इतना नहीं हुआ। गांधीजी जाति-प्रथाके प्रति कुछ बातोंमें अपना मतभेद प्रकट करते हुए अपनेको सनातनी हिन्दू कहते थे। (पृष्ठ ८६-८८ और १७९-८१)। गोमाताके प्रति भक्तिके सम्बन्धमें भी वे अपनेको किसी सनातनी वैष्णवसे पीछे नहीं मानते थे। किन्तु वे यह भी कहते थे कि शास्त्र, जिनमें ‘मनुस्मृति' भी सम्मिलित है, नीरन्ध्र नहीं हैं और वे उस विवेक-बुद्धिके आगे छोटे हैं जो आत्मसंयम तथा सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और असंग्रहके आचरण के बाद प्राप्त होती है। नवनिर्मित गुजरात विद्यापीठकी सीनेटने निश्चय किया कि उससे सम्बद्ध सारी संस्थाएँ अन्त्यज बालकोंके लिए खुली रहेंगी। गुजरातमें इसे लेकर बड़ी जोरदार बहस छिड़ गई और लोगोंने कहा कि गांधीजीका सनातनी होनेका दावा गलत है। (पृष्ठ ८) गांधीजीने जवाबमें अनेक लेख लिखे (पृष्ठ ७५-७७, ९९-१०२, १४५-४६, ३३२-३६) और उसमें उन्होंने हिन्दू-धर्मके सार और शास्त्रोंके प्रति अपनी सर्वसामान्य स्थितिको स्पष्ट किया। ये लेख यह स्पष्ट करते हैं कि गांधीजीकी धार्मिक प्रेरणाका स्रोत हिन्दू-धर्मकी परम्पराओंमें ही था। अलबत्ता उन्होंने, चाहे उसे विवेकयुक्त विचारों और आत्मिक सत्यके प्रकाशमें देखनेकी कोशिश की थी। उन्हें हिन्दू धर्मसे और हिन्दू धर्म जिनको महत्व देता था, उन आदर्शोंसे इतना लगाव था कि जो व्यक्ति केवल उसके बाहरी रूपसे चिपटे रहना चाहते थे उनके प्रति वे असहिष्णु हो उठते थे। उन्होंने ब्रिटिश सत्ताकी निन्दामें जहाँ कठोर शब्दोंका प्रयोग किया, ‘हिन्दू डायर’ (पृष्ठ २९३) आदि शब्दोंका प्रयोग करके उन्होंने अपने समाजके परम्परावादियों की भी कठोर भर्त्सना की। कुछ लोग अस्पृश्यताका सवाल उठानेको राजनीतिक दृष्टिसे बुद्धिमानी नहीं मानते थे; उनका कहना था कि ऐसे समय जब कि सरकारके विरोधमें उन्हें हरएककी सहायता अपेक्षित है, कुछ-न-कुछ लोग इस बातके कारण उनसे विलग हो जायेंगे। किन्तु गांधीजीने ऐसा कोई समझौता करनेसे इनकार कर दिया। वे अस्पृश्यताको एक मूलभूत सवाल मानते थे और उन्हें हिन्दुत्वका भविष्य उससे सम्बद्ध दिखाई देता था।

सरकारने शुरू-शुरूमें असहयोग आन्दोलनका मजाक उड़ानेकी कोशिश की और सोचा कि शायद इस तरह वह समाप्त हो जायेगा। किन्तु आन्दोलन दिन-प्रतिदिन जोर पकड़ता चला गया और तब यह कहा गया कि आन्दोलनका आधार घृणा है। इसे सिद्ध करनेके लिए उन छुट-पुट गलतियोंकी ओर इशारा किया जाने लगा जो आन्दोलनके दौरान एकाध आन्दोलनकारीसे हो जाती थीं। कुछ आलोचकोंने यह भी कहा कि यदि आन्दोलन बन्द नहीं किया गया, तो यह हिंसात्मक रूप धारण कर लेगा और कहीं आन्दोलनके फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार देशसे हट गई, तो देशमें अरा-