पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/१६

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आठ

जकता और अव्यवस्था फैल जायेगी। कुछ लोगोंने यह भी कहा कि जनतामें इतनी शक्ति नहीं है कि कार्यक्रम सफल हो सके। गांधीजीने इन सारी बातोंका बड़े धैर्य के साथ जवाब दिया। कई बार उन्हें अपने तर्कोंको दोहराना भी पड़ा, किन्तु हर बार उनका जवाब आत्मासे उठकर आता था और उसमें एक निष्णात पत्रकारकी कलम झाँकती थी। अराजकता, अव्यवस्था अथवा अंग्रेजोंके चले जानेके बाद किसी विदेशी सत्ताके आक्रमणकी आशंकाका जवाब देते हुए उन्होंने असहयोग आन्दोलनकी उस शक्ति में अपना परिपूर्ण विश्वास प्रकट किया, जो उनकी समझमें देशको अहिंसात्मक बनाकर आत्माको ऐसी पवित्र सामर्थ्य दे सकती थी कि देशको किसी अन्य सहारेकी आवश्यकता न रहे और वह आत्मनिर्भरता प्राप्त कर सके। उन्होंने कहा, मैं किसी ऐसी निराशापूर्ण सम्भावनाकी कल्पना नहीं करता। श्री स्टोक्सके लेखको लक्ष्यमें रखकर उन्होंने कहा कि “यदि अहिंसाके रास्तेसे यह आन्दोलन सफल होता है... तो अंग्रेज चाहे यहाँ रहें या यहाँसे चले जायें, वे जो-कुछ भी करेंगे मित्रोंकी तरह ही करेंगे, और जैसा दो साझेदारोंके बीच किसी अच्छे समझौतेमें होता है, उसी तरह करेंगे। मैं अभीतक मानव-प्रकृ तिकी नेकीमें विश्वास करता हूँ, चाहे वह मानव अंग्रेज हो या कोई और।” (पृष्ठ १७८) इसके पहले गांधीजीको अंग्रेजोंसे लगातार दो कड़वे अनुभ ही प्राप्त हुए थ, फिर भी उन्होंने इस विश्वासको नहीं छोड़ा कि अंग्रेजों और भारतीयोंके बीच परस्पर समानताके आधारपर समझौता हो सकता है; और इसीलिए नागपुर कांग्रेसने अपने नये सिद्धान्तकी स्वीकृति के बावजूद राष्ट्रमण्डलमें स्वतन्त्र भारत के समान-हैसियतसे एक हिस्सेदार बने रहनेकी सम्भावनाका मार्ग खुला हुआ रखा।

जहाँतक अमलमें लानेका सवाल है, नागपुर कांग्रेसमें जो ११ मुद्देवाला कार्यक्रम निश्चित हुआ था, वह बहुत सफल नहीं हुआ। फिर भी गांधीजीकी दृष्टिसे इतना काफी था कि भारतमें ब्रिटिश सत्ता जिस प्रतिष्ठापर आधारित थी, उस प्रतिष्ठाकी नींव हिल गई। यह स्वाभाविक था कि गांधीजी ड्यूक ऑफ कनॉटकी भारत यात्राका उपयोग सत्ताको अपनी खोई हुई प्रतिष्ठाकी पुनःस्थापना करने की दिशामें नहीं होने देना चाहते थे और इसलिए इस बातका खतरा उठाकर भी कि उनपर ड्यूकके प्रति अशिष्ट होनेका आरोप लगाया जायेगा, उन्होंने ड्यूकके सम्मानमें होनेवाले सारे कार्यक्रमों और उत्सवोंका बहिष्कार करनेकी सलाह जनताको दी। इस तरह सरकार के विरोध में संघर्षका वातावरण तैयार हो गया और ३१-३-१९२१ को अखिल भारतीय कांग्रेस समितिकी बैठकमें एक ऐसा कार्यक्रम निर्धारित किया गया जिसके अमलसे देशकी समस्त प्रौढ़ जनताके साथ कांग्रेसका सम्पर्क सध सकता था। किन्तु असहयोग आन्दोलनका अन्तिम आधार तो नैतिक पवित्रता ही था; इसलिए गांधीजीकी यही मान्यता थी कि देश नैतिक दृष्टिसे जिस हदतक ऊँचा उठेगा, उसी हदतक राजनैतिक आन्दोलन भी सफल होगा। वे राजनीतिक कार्यको तपश्चर्या ही मानते थे। उन्होंने राष्ट्रीय सप्ताहको किस तरह मनाया जाये, यह समझाते हुए लिखा: “सत्यका अधिक आग्रह करके, अधिक दृढ़ बनकर, अधिक नम्र तथा शुद्ध बनकर और अधिक शक्ति प्राप्त करके ही [यह सप्ताह] मनाया जाना चाहिए। इस सप्ताहमें ऐसे उपायोंकी योजना करना भी हमारा विशेष