पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५५
भाषण: नागपुरके अन्त्यज सम्मेलन में

हुआ है। जो पतन हुआ है वह तो वर्णाश्रम धर्ममें निहित सौन्दर्य और अनुशासनके त्यागसे हुआ है। आपको यह समझ लेना चाहिए कि वर्णाश्रम धर्म एक चीज है और अस्पृश्यता दूसरी चीज है। वर्णाश्रम धर्म दोषमय है, पापमय है――ऐसा कहता पाश्चात्य पद्धतिका अनुकरण करना है। मैं इसका अनुकरण नहीं करता। इसे अंगीकार करने के कारण ही हिन्दुस्तानका पतन हुआ है। मैं संतमेत अन्त्यजोंका आशीर्वाद और कृपा प्राप्त नहीं करना चाहता। इसलिए मैं साफ-साफ कह देना चाहता हूँ कि मैं इस कार्य में बहुत हिचकिचाहटके साथ शरीक हुआ हूँ क्योंकि मैं अस्पृश्यताके दोषको मिटाने के लिए अन्त्यजों और सुधारकोंके साथ हूँ। दूसरी बातोंके सम्बन्ध में आप और वे लोग जो करना चाहते हैं, उन सबमें में शामिल नहीं हूँ। मैं किसी भी हिन्दूसे नहीं कह सकता कि प्रत्येक हिन्दू परस्पर एक-दूसरेके साथ खाये, पीये अथवा शादी विवाह करे। क्योंकि इसकी आवश्यकतामें मेरा विश्वास नहीं है। मेरा कहना है कि जो व्यक्ति इन तीनों बातोंका त्याग करता है वह संयमी हो सकता हैं और स्वच्छन्द [प्रवृत्तिका] भी हो सकता है। मेरी धारणा है कि यह त्याग सयमवृत्तिके द्वारा ही सम्भव है।

मैं स्वयं अन्त्यजोंके साथ खाता हूँ, पीता हूँ। एक अन्त्यज लड़कीको [१] भी मैंने गोद लिया है। यह लड़की मुझे प्राणोंसे भी प्यारी है। तथापि मैं हिन्दू समाजसे यह नहीं कहता कि वह अपनी त्यागवृत्ति छोड़ दे। मैं मानता हूँ कि मेरे जैसोंके लिए भी हिन्दू समाज में स्थान है। संन्यासी न होनेपर भी मैं जो कर रहा हूँ वैसा करने वाले व्यक्तियोंके लिए हिन्दू समाजमें स्थान है। मुसलमान मुझे कुछ खानेकी वस्तु दे तो मैं उसे खा लूँगा। उसी तरह अन्त्यजोंके पाससे भी मैं खाद्यवस्तु ले सकता हूँ। लेकिन मैं हिन्दुओंको ऐसा करने के लिए बाव्य नहीं करना चाहता, क्योंकि ऐसा करने से अनुशासन भंग होता है। इसमें हिन्दू संसारकी रक्षा समाहित है। वर्णाश्रमको अथवा खानेपीने के व्यवहारको मिटाना और अस्पृश्यताको मिटाना――एक ही चीज नहीं है। एक संयम है जब कि दूसरी दुष्टता है। मैं विद्यार्थी हूँ और [इस विषयपर] अध्ययन कर रहा हूँ। इसलिए जिस दिन मुझे लगेगा कि यह मेरी भ्रान्ति थी, उसी दिन में अपनी भूल स्वीकार कर लूँगा। लेकिन अभी तो मैं यह कहनेको तैयार हूँ कि जो अस्पृश्यताका बचाव कर रहे हैं उनमें तो मैं पाखण्ड और दुष्टता ही देखता हूँ। वे जिस बातके पक्षमें तर्क दे रहे हैं, वह दुष्टता है।

मैंने अपनी सीमा, मेरा काम और उसकी पद्धति आपको बता दी है। मैं नहीं मानता कि सुधारक अन्त्यजोंके बीच काम करके, उन्हें शिक्षा देकर अस्पृश्यताके दोषको मिटा सकते हैं। मैं ऐसे अनेक लोगोंको जानता हूँ कि जो प्लेटफॉर्मपर खूब बोलते हैं, लेकिन जब स्पर्श करनेका प्रसंग आता है तब दूर हट जाते हैं। मेरी पद्धति इससे भिन्न है और मैं कहना चाहता हूँ कि इस तरीकेसे सुधार नहीं होते। लेकिन दूसरी

  1. दूधाभाईकी सुपुत्री लक्ष्मी। यह लोग मई १९१५ में आश्रमकी स्थापना होनेके बाद ही आश्रम में आकर रहने लगे थे। अक्तूबर १९२० को उसे गांधीजीको सौंप दिया गया था। देखिए खण्ड १८, पृष्ठ ३५१, ३६१-६२।