कारण होती है। हिन्दू समाज में अस्पृश्यताके तत्त्वकी मौजूदगीसे मुझे शर्मका अनुभव होता है और हिन्दू होनेका दावा करने में भी संकोच होता है। मुझसे पहले जो वक्ता[१] मराठीमें भाषण दे गये हैं उन्होंने मुझपर आक्षेप किया है कि हिन्दुस्तानने मुझे जिस पदपर प्रतिष्ठित किया है उसे मैंने स्वीकार नहीं किया है; मैं उसके योग्य तभी बनूंगा जब हिन्दू-धर्मसे अस्पृश्यता दूर हो जायेगी। (तालियोंकी गड़गड़ाहट) मैं जिस समय अपने हृदयगत उद्गारोंको व्यक्त कर रहा हूँ उस समय आप मुझे तालियोंकी गड़गड़ाहटसे न रोकें। मैं आपसे पूछता हूँ――अगर आप बता सकें तो बताइए कि क्या ऐसा भी कोई तरीका है जिससे कोई एक ही व्यक्ति किसी बहुत पुराने रिवाजको मिटा सकता है। मुझे यदि कोई यह बता सके कि ऐसा करें तो आज ही अस्पृश्यता दूर की जा सकती है तो मैं आज ही वैसा करूँ। लेकिन हिन्दू समाजसे दोष स्वीकार करवाना और उस दोषको सुधारना कठिन काम है।
मैं जो कहता हूँ वही करता हूँ। मैं जो कर रहा हूँ उसमें मुझे अपनी धर्म-पत्नीको साथ लेने में बहुत कष्ट उठाना पड़ा है, मुझे जो तपश्चर्या करनी पड़ी है उसके आधारपर मैं आपको――अन्त्यजोंको और हिन्दू समाजको――बताना चाहता हूँ कि इस कार्य में बहुत मुश्किलें हैं। लेकिन ऐसा कहने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि हमें यह कार्य बन्द कर देना चाहिए। हमें अपने कार्य करनेकी पद्धतिपर विचार कर लेता चाहिए। यही कारण है कि मुझे आपके प्रस्ताव पसन्द नहीं आते।
आप यह प्रस्ताव पास करना चाहते हैं कि देश-भरमें जितने देवालय हैं उनमें अन्त्यजोंको जानेका हक मिलना चाहिए। यह कैसे हो सकता हैं? हिन्दू-धर्म में जबतक वर्णाश्रम धर्मको प्रधान पद प्राप्त है तबतक प्रत्येक देवालय में प्रत्येक हिन्दूका प्रवेश पा सकना आज नहीं हो सकता। आज इसे हिन्दू समाज में स्थान देना असम्भव है। वह इसके लिए तैयार नहीं है। मेरा अनुभव है कि देवालयोंमें अन्त्यजोंके अलावा दूसरी अनेक जातियोंके लोग भी नहीं जा सकते। मद्रासमें कुछेक देवालयोंमें तो मैं भी नहीं जा सकता। मुझे इसके बारेमें दुःख नहीं होता। मैं यह भी कहनेके लिए तैयार नहीं कि यह हिन्दू-समाजके संकुचित दृष्टिकोणका परिचायक है अथवा यह कोई अन्याय है, दोष है। ऐसा हो भी सकता है; लेकिन इस बातकी विचाधारा क्या है, सो भी सोचा जाना चाहिए। यदि यह कार्य समाज में अनुशासन बनाये रखन के उद्देश्य से किया गया है तो सबको देवालय जानेका अधिकार प्राप्त होना चाहिए, यह बात मैं कदापि न कहूँगा। हिन्दुस्तानमें पृथक-पृथक सम्प्रदाय हैं, उन्हें मैं नष्ट नहीं करना चाहता। हिन्दू-समाजका पतन सम्प्रदायों अथवा वर्णाश्रम धर्मसे नहीं
- ↑ एक प्रस्ताव में गांधीजीसे कांग्रेसके अध्यक्ष पदको स्वीकार करनेका अनुरोध किया गया था। प्रस्ताव पेश करनेवाले और उसका समर्थन करनेवाले वक्ताओंने कहा था, जैसा कि महादेव देसाईने अपनी रिपोर्टमें लिखा है: “...गांधीजीने अभीतक हम लोगों (अस्पृश्यों) के लिए कुछ भी नहीं किया है। उन्हें हमारे प्रयत्नोंसे सहानुभूति है। हमें अपनी स्थितिको सुधारनेके लिए गांधीजीकी सेवाओंकी कोई जरूरत नहीं है। उसे तो हम राज्य द्वारा अनुकूल कानून पास करवा करके भी सुधार सकते हैं लेकिन अस्पृश्यताको कानूनोंकी मददसे दूर नहीं किया जा सकता।”