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११३. विनम्रताकी जरूरत

अहिंसाकी भावना लाजमी तौरपर विनम्रताकी ओर ले जाती है। अहिंसाका मतलब है उस भगवानपर पूरा भरोसा करना जो सदासे सबका सहारा रहा है। अगर हम उसकी मदद चाहते हैं तो हमें अहंकार छोड़कर और पश्चात्ताप-भरे दिलसे उसकी शरण में जाना चाहिए। कांग्रेसके अधिवेशन में असहयोगियोंको जो आश्चर्य-जनक सफलता मिली उसका उन्हें बेजा फायदा उठानेकी कोशिश नहीं करनी चाहिए। व्यवहारमें हमें आमके पेड़के जैसा होना चाहिए, जो फल आनेपर झुक जाता है। उसकी शानदार विनम्रता ही उसकी शोभा है। लेकिन यह सुना जाता है कि मतभेद रखनेवालोंके साथ असहयोगियोंका व्यवहार अविनीत और असहिष्णु होता है। वे अगर इस तरह इतराने लगे तो मैं इतना ही जानता हूँ कि वे अपनी गरिमा और अपना गौरव सभी-कुछ खो बैठेंगे। अभीतक की अपनी प्रगतिपर हमें असन्तोष भले ही न हो, परन्तु अभी गर्व करने लायक भी हमने क्या पा लिया है? गर्वसे फूल उठना तो दूर, उचित गर्व कर सकनके लिए भी अभी हमने जितना त्याग किया है, उससे बहुत ज्यादा त्याग हमें करना होगा। कांग्रेसके अधिवेशनमें शरीक होनेवाले हजारों लोगोंने अहिंसाके सिद्धान्तका बौद्धिक समर्थन तो बेशक किया, मगर उसपर आचरण बहुत कम कर रहे हैं। वकीलोंकी बात छोड़ भी दें तो ऐसे कितने माता- पिता हैं जिन्होंने अपने बच्चोंको स्कूलोंसे हटा लिया है? असहयोगके पक्षमें मत देनेवाले ऐसे कितने लोग हैं जो चरखा चलाते हैं या जिन्होनें विदेशी कपड़ेका इस्तेमाल पूरी तरह छोड़ दिया।

असहयोग आन्दोलनमें डींग हाँकने, शेखी बघारने या झांसा देनेसे काम नहीं चल सकता। यह तो हमारी ईमानदारीकी कसौटी है। यह आन्दोलन हमसे ठोस और मूक बलिदान चाहता है। यह हमारी ईमानदारी और राष्ट्रके कामके हमारे सामर्थ्यको चुनौती है। इस आन्दोलनका मकसद तो विचारोंको कार्यरूप देना है। जितना ही ज्यादा काम करते हैं हमें उतना ही ज्यादा यह पता चलता है कि हमने जितना सोचा था, उससे कहीं अधिक काम करनेकी जरूरत है। अपनी अपूर्णताके इस खयालसे तो हममें विनम्रता ही आनी चाहिए।

असहयोगी अगर लोगोंका ध्यान अपनी बातोंकी ओर खींचना चाहता है, अगर वह उनके सामने कोई मिसाल पेश करना चाहता है तो ऐसा वह हिंसाके जरिये नहीं, बल्कि शीलयुक्त विनम्रताके जरिये ही करता है। वह बोल कर नहीं, ठोस कामके द्वारा लोगोंको अपने पंथ और मतका परिचय देता है। अपने सिद्धान्तकी सचाईमें पक्की आस्था ही उसकी ताकत है। और यह आस्था उसके विरोधीमें भी उस समय सबसे

अधिक जाग्रत होने लगती है जब वह विरोधका उत्तर अपनी वाणीसे न देकर सिर्फ अपने कामसे देता है। वाणी, खास तौरपर अभिमानसे भरी उद्धत वाणी विश्वासकी

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