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१२५. भाषण : राष्ट्रीयशाला, नडियादके विद्यार्थियोंके समक्ष[१]

१९ जनवरी, १९२१

आज तुम्हारा, मेरा और जो अपने आपको भारतीय कहते हैं उन सबका एक ही धर्म यह है कि हमें एक वर्षके भीतर जो स्वराज्य प्राप्त करना है उसके लिए हम अवश्य ही उचित साधनोंको अपनाएँ और आवश्यक बलिदान करें। मेरी इच्छा है कि आप 'स्वराज्य' एक राजनीतिक विषय न समझ बैठें। "स्वराज्य क्या है" यह बात प्रत्येक विद्यार्थीको समझ लेनी चाहिए तथा उसे अपना स्वधर्म मानना चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थीमें स्वधर्मकी रक्षा करनेकी शक्ति होनी चाहिए। उसमें इतनी शक्ति होनी चाहिए कि कोई मारकर अथवा डरा-धमकाकर उससे कोई काम न करवा सके। जो उसे असत्य जान पड़े उसे वह असत्य कहे, जो सत्य जान पड़े उसे सत्य कहे। इतनी हिम्मत प्रत्येक विद्यार्थीमें होनी चाहिए। माँ-बापको चाहिए कि वे बाल-कोंको सच-झूठकी पहचान करना सिखाएँ। स्वराज्यका अर्थ यही है। स्वराज्यका अर्थ है जो कुछ हमारे मनमें हो उसे बोलने और करनेका तथा जिसे हम पापरूप मानें उसे न करनेका अधिकार।

जबतक हम किसी भी तरहकी स्वतन्त्रताका उपभोग नहीं कर पाते, जबतक हमारी खाने-पीनेकी वस्तुओं और हमारे विचारोंतक पर दूसरोंका अंकुश है तबतक हम स्वराज्य-भोगी कैसे हो सकते हैं? हम कपड़ेके बारेमें पराधीन हैं। इसी कारण हम अन्नके लिए भी दूसरोंपर निर्भर हो गये हैं। भाई अमृतलाल ठक्कर उड़ीसामें काम करने गये थे; वे वहाँसे अभी-अभी आये हैं। गुजरातने वहाँके अकाल-संकटका निवारण करनेमें कुछ हिस्सा लिया है; इसीलिए मैं यहाँ इस बातका जिक्र कर रहा हूँ। इस अकालक कारण अतिवृष्टि हो चाहे अनावृष्टि; लेकिन उड़ीसाके लोगोंके पास रुपया नहीं है। वे इस कारण अनाज नहीं खरीद सकते। उनके पास कोई काम-धन्धा न होता ही उनकी कंगालीका कारण है। इसीसे मैं कहता हूँ कि अगर हम बच्चोंसे भी स्वदेश-सेवा करवाना चाहते हैं तो जिस तरह हमें उन्हें ईश्वरका नाम लेना और लिखना- पढ़ना सिखाना चाहिए उसी तरह हमें उन्हें हाथ-पैरोंसे काम लेनेकी भी शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें तभी हार्दिक, मानसिक और शारीरिक तीनों तरहकी शिक्षा मिलेगी। आज हस्तकलाके रूपमें चरखा ही सबसे बड़ी शिक्षा है। इससे हम स्वराज्य प्राप्त कर सकते हैं। इससे हम देशमें साठ करोड़ रुपये प्रतिवर्ष बचा सकेंगे।

मेरी इच्छा है कि आप लोग यह समझने लगें कि जिस तरह सत्यादि व्रतोंका पालन करना धर्म है उसी तरह हिन्दुस्तानके लिए चार-पाँव घंटे चरखा चलाना भी धर्म है। मैं चाहता हूँ कि हरेक विद्यार्थी एक वर्षतक छः घंटे नित्य चरखा चलाये।

  1. महादेव देसाइँके यात्रा-विवरणसे उद्धृत।