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भाषण : वड़तालकी सार्वजनिक सभामें


हमें भी करना है। हम राम नहीं हैं इसलिए हम [रावणरूपी सरकारके] शरीरकी हत्या करके कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। हम तो मानते हैं कि अपनी दुष्ट वासनाओंके कारण यह सरकार नित नया शरीर धारण किया करेगी। फिर भी हमें वाल्मीकि और तुलसीदासजीके आदेशोंका पालन करते हुए उसके संग का त्याग करना चाहिए; और इस प्रकार दुष्टताका नाश करना चाहिए।

'जेन्द-अवेस्ता', 'कुरान', 'बाइबिल', स्वामीनारायण[१] आदिने यही सिखाया है कि दुष्ट का संग नहीं करना चाहिए, उसे मदद न तो देनी चाहिए और न उससे लेनी चाहिए। सरकारने इसलामपर हाथ डाला है। मुसलमानोंके साथ विश्वासघात करके अपने रावणत्वका परिचय दिया है। आज इस्लाम है तो कल हिन्दू-धर्म। हिन्दू-धर्मपर तो वह बहुत पहले ही झपट्टा मार चुकी है; लेकिन अज्ञानवश हमने अपनी सभ्यताका त्याग करके उसका बहुत ज्यादा विरोध नहीं किया। हिन्दुओंने अपने धर्मका त्याग न किया होता तो गायोंकी खुले-आम हत्या करनेवालोंको हम कैसे सलाम बजा पाते? यह कोई एक व्यक्तिका सवाल नहीं है। एक व्यक्ति गो-हत्या करे तो उसे सहन कर लेना एक अलहदा बात है। लेकिन जो हमारे सरदार बनकर, सरकार बन कर, अन्नदाता होकर गो-हत्या करे उसके प्रति हम कैसे वफादार हो सकते हैं।

आप पूछेंगे कि क्या मुझे इस बातका पता सिर्फ सालभर पहले ही चला? नहीं; लेकिन उस समय मैं भ्रममें पड़ा हुआ था; मेरी धारणा थी कि मैं सरकारको सुधार लूँगा। मैं मरकर भी इसे प्रभावित करूँगा, मैं ऐसा मानता था। लेकिन इस्लामके साथ जानबूझकर किये गये विश्वासघातसे मेरा यह विश्वास चला गया। मैं चेत गया और मैंने समझ लिया कि "हे जीव! तू अगर भारतीय है तो चेत और इसकी संगति छोड़कर भाग, नहीं तो तू हिन्दू-धर्मसे हाथ धो बैठेगा।" तबसे मैं हिन्दुओंके बीच जाकर उन्हें धर्मके रक्षणार्थ असहकार सिखा रहा हूँ। यदि आप हिन्दु-धर्मका पालन करना चाहते हों तो इस पवित्र धाममें मैं आपसे कहता हूँ कि आपका पहला और अन्तिम पाठ असहकार है।

लेकिन आप कहेंगे कि तब मैं मुसलमानोंके साथ मित्रता करनेकी बातें कैसे कर रहा हूँ? वे भी तो गायोंको मारते हैं। मैं कहूँगा कि वे वह कत्ल धर्मके नामपर करते हैं। मैं उन्हें समझा सकूँगा कि अगर कोई सनातनी——कट्टर हिन्दू आपका साथ देता है तो वह इस विश्वासके साथ देता है कि यदि वह आपके धर्मकी रक्षा करते हुए अपने प्राणोंको उत्सर्ग कर देगा तो भगवान मुसलमानोंको गायकी रक्षा करनेकी प्रेरणा देगा। मैं उनके साथ सहयोग के लिए यह शर्त पेश नहीं करता; लेकिन भगवान उन्हें ऐसा करनेकी प्रेरणा देगा, ऐसी मेरी मान्यता है।

यह बात मैं हमेशा नहीं कहता कि मैं कोई शर्त नहीं लगाता। लेकिन साधुओं और मन्दिरोंके सामने मुझे यह कहना ही चाहिए। अगर मैं न कहूँ तो मुझे दोष लगेगा।

आप अंग्रेज अथवा मुसलमानकी हत्या करके गायकी सेवा नहीं कर सकते बल्कि अपनी ही प्यारी जान देकर उसे बचा पायेंगे। गायको बचानमें अगर हमने अपना सर

  1. स्वामी सहजानन्द (१७८१–१८३०); स्वामीनारायण सम्प्रदायके प्रवर्तक।