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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आते हैं वैसे ही कोई दीवाना मार भी बैठे तो समझदारीसे काम लेकर शान्त रहना धर्म है। क्षत्रियका धर्म कोई गाली दे, लकड़ी मारे, हँसिया मारे तो उसके प्रत्युत्तरमें वार करना नहीं है; उसे सहन कर लेना है। क्षत्रियका धर्म भागनेका नहीं है, उसका धर्म मारना भी नहीं है, मरना और मरकर जीनेका है। मैं पूरे विश्वासके साथ कहता हूँ कि कोई भी व्यक्ति हिंसा करके दूसरेकी रक्षा नहीं करता, सच तो यह है कि हत्यारा मरनेकी तैयारी करता है और मरनेकी पूरी हिम्मत न होनेके कारण दूसरेको मार कर मरता है। वह जिस हदतक तलवारका प्रयोग करता है उस हदतक वह क्षत्रिय नहीं है।

क्षत्रिय विश्वास करे तो मरण तो उसके माथेका मुकुट है। मरनेका भय कैसा? जहाँ मरनेकी सबसे अधिक सम्भावना हो वहाँ जाकर खड़े होनेवाला ही सच्चा बहादुर है। जो मार सकता है उसे कोई बहादुर नहीं कहता। एक कुम्हार जो गधीको मारता रहता है उसे हम क्षत्रिय नहीं कहते और जो क्षत्रिय व्यक्तियोंकी हत्या करता है यदि उसे हम कुम्हार कहें तो यह एक सही विशेषण प्रदान करना कहलायेगा। जो पुरुष अपनी स्त्रीको मारता है उसे हम बहादुर नहीं कहते बल्कि नामर्द कहकर यथार्थ विशेषणसे विभूषित करते हैं। हममें जबतक क्षत्रियके गुण नहीं आते तबतक स्वराज्य मिलना मुश्किल है। क्षत्रियका गुण धीरज है। बारह वर्षके प्रह्लादमें सुधन्वामें, सीतामें यह गुण विद्यमान था। रावणने सीताको लालच दिये, भय दिखाये लेकिन सीताजी टससे-मस न हुई। इसीसे आज हम उन्हें शुद्ध क्षत्रियाणी——देवी——माता मानते हैं, जबतक स्त्रियोंमें सीताके गुण नहीं आ जाते तबतक वे असहकार करने और स्वराज्य प्राप्त करनेके योग्य नहीं हैं। सीताजीने रावणके मिष्टान्नोंका त्याग किया, ये व्यंजन कोई कड़वे न थे, लेकिन अपात्रके द्वारा दिये गये थे इसलिए सीताजीने उन्हें फेंक दिया। रावणने जो आभूषण भेजे, सुन्दरतामें वे अभूतपूर्व थे, उनके हीरे-मोतियोंकी चमक आजके हीरे-मोतियोंसे कहीं अधिक होगी, लेकिन चूँकि वे अपात्रकी मार्फत आये थे इसलिए सीताजीने उनका त्याग किया। तभी वे अपने सतीत्वकी रक्षा कर सकीं।

हिन्दुस्तानको भी असहकारके लक्षण जान लेनेकी जरूरत है। यदि हम अपने वीर्यकी, अपने धर्मकी, और गाय तथा अपने अस्तित्वकी रक्षा करना चाहते हों तो असहकार जरूरी है।

सरकारने हमारे आत्मसम्मानकी चोरी की है। पैसेकी चोरी तो वह करती ही थी; लेकिन जबतक वह हमारे धनको ही लूटती रही तबतक मैंने उसे बरदाश्त कर लिया। मैंने इसके साथ वैसा व्यवहार किया जैसा मैं अपने आश्रममें करता हूँ। आश्रममें मैं किसी चोरको दण्ड नहीं देता। उसी तरह मैं सरकारको भी सहन करता रहा। लेकिन जब सरकारने हमारे आत्मसम्मानपर हाथ डाला तब मुझे चेत हुआ कि यह तो रावणका अवतार है, इसका संहार करना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं रामचन्द्रका अवतार हूँ। रामचन्द्रको हम ईश्वर मानते हैं। मैं ईश्वर नहीं हूँ, आप भी नहीं हैं; लेकिन हम सब रामचन्द्रके वारिस हैं। उनके जैसी तपश्चर्या करना और उनके जैसे दुःखोंको सहना हमारा कर्त्तव्य है। उन्होंने जैसे रावणसे असहकार किया वैसे