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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आज आपको यह सब करने का अवसर प्राप्त हुआ है। आज बंगालके और अन्य हिस्सोंके नौजवानों का आह्वान किया गया है। मुझे आशा ही नहीं, पूरा विश्वास है कि भारतके सभी नौजवान लड़के और लड़कियाँ इस पवित्र आह्वानका अनुकूल उत्तर देनके लिए आगे आयेंगे। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस सालकी समाप्तिसे पूर्व ही वह अवसर आ जायेगा जब आपको जिस दिन आपने ये दोनों काम शुरू किये उस दिनके लिए पछताना नहीं पड़ेगा। इस अध्यायके अन्तमें आप देखेंगे कि आज रात मैं आपसे जो-कुछ कह रहा हूँ वह सब सच निकला; आपने भारतके सम्मानकी रक्षा कर ली है, इस्लामकी प्रतिष्ठा बचा ली है, सारे राष्ट्रका सम्मान कायम रखा है और स्वराज्य प्राप्त कर लिया है। भगवान बंगालके युवकों और युवतियोंको आवश्यक साहस, आवश्यक आशा और आवश्यक विश्वास दे ताकि आप आत्मशुद्धि और बलिदानके इस पुनीत परीक्षा-कालमें कसौटीपर खरे उतरें। भगवानसे मेरी कामना है कि वह आपकी सहायता करे।[१]

इस भाषणके बाद जब गांधीजीसे चिकित्सा-शास्त्रके विद्यार्थियोंसे विशेष रूपसे कुछ कहनेके लिए कहा गया तो उन्होंने आगे कहा:

एक और चीज है, जिसकी मैंने जान-बूझकर चर्चा नहीं की। वह चीज मेरे मनमें तो थी, लेकिन चूँकि मैंने कताई और हिन्दुस्तानी सोखनेकी आवश्यकता तथा कालेजकी पढ़ाई छोड़ देनेके बाद आपको क्या करना चाहिए——इन सब बातोंमें आपका बहुत ज्यादा समय ले लिया था, इसलिए मैंने जान-बूझकर चिकित्सा शास्त्रके विद्यार्थियोंकी कठिनाईका जिक्र नहीं किया। यदि वे अपनी विलक्षण बुद्धि और कल्पनाशक्तिसे काम लें तो, मैंने विद्यार्थी समुदायसे आम तौर पर जो-कुछ कहा है, उससे वे आसानीसे समझ जायेंगे कि जो बातें आर्ट्स कालेजों और अन्य कालेजोंके विद्याथियोंपर लागू होती हैं, वे बातें चिकित्सा-शास्त्रके विद्यार्थियोंपर भी लागू होती हैं, बल्कि उनपर शायद ज्यादा ही लागू होती हैं। वे भारतके बहते घावोंको भरना चाहते हैं, वे रोग-ग्रस्त भारतको उसके रोगोंसे मुक्ति दिलाना चाहते हैं; और मेरी समझमें तो पंजाबको जो घाव लगा है वही भारतके शरीरपर लगा सबसे बड़ा घाव है। वह आज जिस असहायावस्थामें पड़ा हुआ है, परतन्त्रता और दासतामें जकड़ा हुआ है, वही उसका सबसे बड़ा रोग है। इसलिए अगर चिकित्साशास्त्रके विद्यार्थी अपन भावी धन्धेके प्रति ईमानदार हैं तो वे बेहिचक इस आह्वानका अनुकूल उत्तर देंगे। वे नंगोंके लिए कपड़े जुटाने और भारतको उसके अपमान, अवमानना और असहायावस्थासे मुक्त करानेके मानवीयतापूर्ण कार्यका भार अपने कंधोंपर उठा लेनेमें तनिक भी आगापीछा नहीं करेंगे। उनके लिए इससे कोई अच्छा काम हो ही नहीं सकता। किसी भी भारतीय के लिए——चाहे वह कितना भी कुलीन और प्रतिष्ठित हो, चाहे वह कितना भी विद्वान्, शक्तिशाली और वैभव-सम्पन्न हो——स्वराज्य प्राप्तिसे बढ़कर, भारत आज वर्षोंसे जिस भयंकर रोग से पीड़ित है उससे उसे मुक्ति दिलानेसे बढ़कर कोई

  1. यंग इंडियामें प्रकाशित रिपोर्ट यहीं समाप्त हो जाती है। आगेका अंश अमृतबाजार पत्रिकासे लिया गया है।