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भाषण : कलकत्तामें

और काम हो ही नहीं सकता। अतः मैं चिकित्सा-शास्त्रके सभी विद्यार्थियोंसे, कालेजोंमें पढ़नेवाले अन्य सारे विद्यार्थियोंसे तथा सोलह सालसे अधिक उम्रके सभी स्कूली विद्याथियोंसे भी कहता हूँ कि वे बिना किसी हिचकिचाहटके तत्काल ही अपने-अपने स्कूलों और कालेजोंको छोड़ दें और इस तरह, उनपर जो सर्वोपरि कर्त्तव्य आ पड़ा है, उसे पूरा करें। लेकिन मेरी सलाह मानने-न-माननेकी आपको छूट तो है ही। आपको नये कालेज, नये स्कूल और नये मेडिकल-कालेज, या आप जो भी चाहें, स्थापित करनेकी भी छूट रहेगी। लेकिन अगर आप मेरी सलाह मानेंगे तो आप समझ जायेंगे कि जबतक आप अपना सारा समय स्वराज्य-प्राप्तिमें नहीं लगाते और इस कामको हर तरहसे आसान बनानेका प्रयत्न नहीं करते तबतक यह नहीं माना जायेगा कि आपने सच्चे और बहादुर लोगोंकी तरह अपना काम पूरा किया है।

अगर मैं मेडिकल कालेजों अथवा किसी अन्य संस्थासे सम्बन्धित किसी बातकी चर्चा न कर पाया होऊँ और आप अगर मेरे मुँहसे उसका समाधान चाहते हों तो मैं ऐसे प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिए तैयार हूँ, लेकिन मैं आपसे कहूँगा कि सवालोंके जवाब देते-देते, भाषण देते-देते, लोगोंसे आरजू-मिन्नत करते-करते मैं ऊब गया हूँ। मैं तो इन सबकी बनिस्बत यही ज्यादा पसन्द करूँगा कि मैं मूक हो जाऊँ और आपको आपकी समझ, आपकी अन्तरात्माके भरोसे छोड़ दूँ। आज ही मैं एक पत्रलेखकको उत्तर दे रहा था, जिसने 'नवजीवन' को लिखा था कि "अगर आप कहते हैं, अगर आप समझते हैं कि अन्तरात्मा सर्वोपरि है तो फिर आप हमसे बहस करनेमें इतना सारा समय क्यों नष्ट करते हैं? आप हमें अपनी समझके भरोसे ही क्यों नहीं छोड़ देते?" एक तरहसे उसकी यह फटकार सही थी। लेकिन मेरे दिलमें जो आग जल रही है, उसे मैं अच्छी तरहसे जानता हूँ। इस आगकी गर्मी अगर मैं आपतक ठीक तरहसे नहीं पहुँचा सका तो यह न आपके साथ ईमानदारी होगी और न स्वयं मेरे अपने साथ। इसलिए मेरे अन्तरमें आशा और साहसका जो दीप जल रहा है, उसका प्रकाश आपको देनेके लिए मैं भारतके एक सिरेसे लेकर दूसरे सिरेतक घूम रहा हूँ। विश्वास कीजिए, अगर मुझे अकेले ही छोड़ दिया जाये तो आप मुझे अपनी शक्ति-भर सूत कातने और दत्तचित्त होकर हिन्दुस्तानीकी पुस्तकोंको पढ़ते हुए ही पायेंगे। मैं जानता हूँ कि मैं हिन्दुस्तानी बोल लेता हूँ लेकिन मैं अपनी सीमाओंसे भी अवगत हूँ और मैं जानता हूँ कि इन सीमाओंके कारण मुझे कितनी कठिनाईका सामना करना पड़ रहा है। मुझे हिन्दुस्तानी साहित्यकी उतनी अच्छी जानकारी नहीं है जितनी अंग्रेजी साहित्यकी है।

इसलिए मेरे नौजवान दोस्तो, मैं आपसे कहूँगा कि आप अपना सारा सन्देह, सारा भय और सारी शंका बंगालकी खाड़ीमें विसर्जित कर दें और एक नई आशा, नई उमंगके साथ उठ खड़े हों——ऐसी आशाके साथ जिसका फल मिले बिना नहीं रहेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २–२–१९२१
अमृतबाजार पत्रिका, २५–१–१९२१