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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

धर्मको बचानेके लिए भी मरनेके लिए तैयार रहना चाहिए। यही बात सब हिन्दुओंके लिए भी सही है। जबतक हिन्दू-मुसलमान एक नहीं होते तबतक स्वराज्य एक अर्थ-विहीन आदर्श है और गो-रक्षा तबतक असम्भव है। स्वार्थ सब जानेपर मुसलमान दगा देंगे, मैं ऐसा नहीं मानता। जो धर्मको मानते हैं, वे दगा नहीं देते। हिन्दुओंने कोई बड़ा त्याग किया और वह फलीभूत नहीं हुआ, ऐसा एक भी ऐतिहासिक दृष्टान्त मेरी नजरोंसे नहीं गुजरा है। आजतक जो हुआ वह तो बनियेका सौदा था। किन्तु हमारे वर्तमान व्यवहारमें सौदेकी गुंजाइश नहीं है। हिन्दू अपना धर्म समझकर मुसलमानोंकी मदद करें और फलकी आशा ईश्वरसे रखें, मुसलमानोंसे कुछ भी न चाहें। मैं गोरक्षाकी बात अली भाइयोंसे कदाचित् ही करता हूँ। मौलाना अब्दुल बारी साहबके साथ हुए संवादको मैं प्रकाशित कर ही चुका हूँ।[१] तथापि वे जानते हैं कि मैंने इस बातको छिपाया नहीं है कि मैं मुसलमानोंके लिए मरकर उनके हृदयको द्रवित करनेकी उम्मीद रखता हूँ। मेरी दृढ़ मान्यता है कि ईश्वर अच्छे कामका फल अवश्य देता है। मुझे तो ईश्वरसे ही याचना करनी है। मुसलमान भाइयोंके हाथमें तो मैं बिना मूल्य बिक गया हूँ और प्रत्येक हिन्दूको ऐसा ही करनेके लिए कह रहा हूँ। इसमें दाँवपेच नहीं है; यह तो खुली बात है। यदि मुसलमान भाइयोंका मामला कमजोर होता तो मैं उनके लिए मरनेको कतई तैयार न होता। उनके मामलेको बिलकुल सच जानते हुए भी मैं सन्देह अथवा भयवश उससे अलग रहूँ तो मैं अपने हिन्दुत्वको लजाता हूँ, मेरा पड़ौसी-धर्म लुप्त हो जाता है।

मैं जानता हूँ कि खिलाफत राजनीतिक हथियार नहीं है। खिलाफतका पक्ष लेना सभी मुसलमानोंका धर्म है; हिन्दू इसे धर्म न मानें यह दूसरी बात है। गो-रक्षाको कोई भी मुसलमान धर्म नहीं समझता। लेकिन सब मुसलमान जानते हैं कि हिन्दुओंके लिए वह धर्म ही है। अली भाइयोंकी धर्मपरायणताके सम्बन्धमें मेरे हृदयमें बहुत आदरभाव है। केवल राजनीतिक लाभकी उपलब्धिके लिए वे फकीरीको अख्तियार नहीं करेंगे। खिलाफतको बचानेका प्रयत्न करनेमें इस्लामकी सत्तामें भी अवश्य वृद्धि होगी। इस बातपर प्रसन्न होनेमें कोई गुनाह नहीं है। मुसलमानोंको निःसन्देह इसपर खुशी होगी और यदि हम ऐसा मानें कि हिन्दू-धर्मकी जागृतिसे इतर धर्मावलम्बियोंको प्रसन्न होना चाहिए तो इस्लामकी उन्नतिसे हम हिन्दुओंको भी प्रसन्न होना चाहिए।

गुरु नानक और कबीरने हिन्दू-मुसलमानोंको एक करनेका प्रयत्न किया था। उस इतिहासकी यहाँ पुनरावृत्तिकी बात कोई नहीं करेगा, ऐसी मुझे उम्मीद है; क्योंकि आजका प्रयत्न धार्मिक एकताका नहीं बल्कि धर्मकी भिन्नता होते हुए भी हृदयकी एकताका है। गुरु नानक आदिका प्रयत्न धर्मोमें एकता प्रदर्शित करते हुए दोनोंको एक बनानेका था। आजका प्रश्न तितिक्षाका है। कोशिश यह है कि सनातनी हिन्दू अपने धर्मके प्रति सजग रहते हुए कट्टर मुसलमानका आदर करें, उसकी सच्चे हृदयसे उन्नति चाहें। यह प्रयत्न होनेको नया है, लेकिन हिन्दू-धर्मके मूलमें निहित भावना यही है।

  1. संवादके विवरणके लिए देखिए खण्ड १६, पृष्ठ ९५-९६ ।