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कुछ प्रश्न

आशा की जा सकती है उतनी वे फलीभूत कर रहे हैं। असहयोगमें अविनय हो ही नहीं सकती। यह भाई लिखते हैं कि मनुष्य अपनी प्रकृतिके अनुकूल आचरण करता है, सो बात सच है लेकिन मनुष्यके दो स्वभाव होते हैं। एक 'अहरमन' दूसरा 'अहुरमज्द'। एक 'आसुरी' और दूसरा मानवी; एक सत्यशील, दूसरा असत्यशील। सत्यपर ही जोर दिया जाय, 'अहुरमज्द' पर दृष्टि रखी जाय, भले ही जो कलतक पशु था लेकिन आज यदि वह मनुष्य हो गया है, तो वह मनुष्य ही है; यदि हम निरन्तर यह ध्यानमें रखें तो इससे मनुष्यताको किसी प्रकारकी हानि नहीं होती, मेरा यह निजी अनुभव है।

दूसरा प्रश्न, मैंने गैर सरकारी स्कूलोंके अध्यापकोंसे सम्बन्ध तोड़नेकी जो सलाह दी है, उससे सम्बन्धित है, सो ऐसी सलाह मैंन किसीको दी ही नहीं।

अविवेकी असहयोगी

किसी तथाकथित असहयोगीने विधान परिषद्के उम्मीदवारको 'गधोंका सरदार' कहा है——तीसरे प्रश्नमें इस बातको लेकर चर्चाकी गई है। मुझे लिखते हुए दुःख होता है कि हमारे बीच ऐसे अविवेकी विशेषणोंका प्रयोग करनेवाले असहयोगी भी हैं। लेकिन यह तो हमारी एक बहुत लम्बे अर्सेसे चली आ रही विरासत है इसलिए बहुत प्रयत्नोंसे ही यह आदत जा पायेगी। मैं जानता हूँ कि अनेक असहयोगी अपनी भाषा और अपने विचारोंको संयमित करनेमें सफल हो रहे हैं। पत्र लेखक यह मानता है कि लोगोंको ऐसा बोलनेकी जो आदत पड़ गई है, बहुत सम्भव है कि उसका सामना करनेका मेरा प्रयत्न निष्फल हो जाये। लेकिन मेरा तीस वर्षका अनुभव इसके विपरीत है।

मैंने खिलाफतमें साथ क्यों दिया है?

चौथा प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। उक्त सज्जन लिखते हैं:

आप खिलाफतकी इतनी अधिक चिन्ता क्यों करते हैं, यह बात मेरी समझमें नहीं आती। हम तो ऐसा मानते हैं कि खिलाफत सिर्फ 'पोलिटिकल वेपन' (राजनीतिक हथियार) है। इतिहासपर नजर डालनेसे यही लगता है कि चाहे जितना त्याग करनेके बावजूद हिन्दू-मुसलमान एक नहीं हो सकते। अगर सम्भव हो और उसे बनाये रखा जा सके तो हिन्दू-मुस्लिम एकता स्पृहणीय है। लेकिन स्वार्थके आधार- पर खड़ी की गई एकता स्थायी नहीं रह सकती, मेरे-जैसे अनेक लोगोंका यही मत है। इसलिए आप खिलाफतके बारेमें इतनी अधिक चिन्ता क्यों करते हैं, अगर एक लेख द्वारा यह बात स्पष्ट कर सकें तो हम-जैसे लोग आपके आभारी होंगे।

मैंने बातचीतमें और लेखोंमें इस प्रश्नकी चर्चा की है, लेकिन ऐसा मानकर कि वह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है कि उसकी जितनी चर्चा की जाये, कम है, मैं एक बार फिर यहाँ इसकी चर्चा करता हूँ। खिलाफतके प्रश्नको मैं सर्वोपरि स्थान देता हूँ। असहयोगका शस्त्र भी, उसे हम जिस रूपमें जानते हैं, खिलाफतके प्रश्नपर विचार करते- करते हाथ लगा है। एक कट्टर हिन्दू होनेके नाते मुझे इसकी बहुत चिन्ता होती है। यदि सात करोड़ मुसलमानोंसे मैं अपने धर्मको सुरक्षित रखना चाहता हूँ तो मुझे उनके