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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसके अतिरिक्त, किसी भी अहिंसक अभियानमें सामाजिक बहिष्कारको शामिल किये जा सकनेकी शर्त यह है कि उसमें अमानुषिकताकी गन्ध भी न आये। बहिष्कारमें सौजन्य और सभ्यता होनी चाहिए। यदि उससे बहिष्कृत व्यक्तिको असुविधा होती है, तो बहिष्कर्त्ताको भी कष्ट होना चाहिए। इस प्रकार किसी मनुष्यको चिकित्सककी सहायतासे वंचित करना——जैसा कि कहा जाता है, झाँसीमें किया गया——अमानु- षिकताका एक ऐसा कृत्य है, जो नैतिक विधानके अनुसार हत्याका प्रयत्न करनेके बराबर है। मैं किसी मनुष्यकी हत्या करनेमें और मरणासन्न व्यक्तिको चिकित्सासे वंचित कर देनेमें कोई अन्तर नहीं देखता। मैं समझता हूँ, युद्धके नियमोंमें भी अपेक्षा की जाती है कि यदि शत्रु-पक्षके भी किसी व्यक्तिको डाक्टरी सहायताकी जरूरत हो तो उसे सहायता दी जानी चाहिए। किसी मनुष्यको गाँवके एकमात्र कुएँके उपयोगसे वंचित करना उसे इस बातकी सूचना देना है कि वह गाँव छोड़ दें। निश्चय ही, असहयोगियोंको अपनेसे भिन्न मत रखनेवालोंके विरुद्ध ऐसा हद दर्जेका दबाव डालनेका कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। अधैर्य और असहिष्णुता अवश्य ही इस महान् धार्मिक आन्दोलनको नष्ट कर देगी। हम जबर्दस्ती लोगोंको शुद्ध नहीं बना सकते; और हिंसाके बलपर हम उनसे अपना मत स्वीकार करा सकें यह तो और भी असम्भव है। यह लोकतंत्रकी उस भावनाके बिलकुल खिलाफ है, जिसको हम अपनेमें विकसित करना चाहते हैं।

यह ठीक है कि हमारे मार्गमें भारी कठिनाइयाँ हैं। यदि कोई प्रतिवादी पंच-अदालतके सामने अपना मामला तो रखे, लेकिन उसके निर्णयको माननेसे इनकार कर दे, तो उस समय सामाजिक बहिष्कारका प्रयोग करनेका प्रलोभन अदम्य हो जाता है। फिर भी यह आसानीसे समझा जा सकता है कि सामाजिक बहिष्कारके प्रयोग द्वारा पंच-निर्णयसे झगड़ोंके निपटारेके उस शानदार आन्दोलनका ही रुक जाना लगभग निश्चित है, जो असहयोगका एक बहुत उपयोगी अस्त्र होनेके साथ ही एक ऐसा आन्दोलन भी है, जिसमें देशका बहुत बड़ा हित निहित है। पंच-निर्णयका तरीका स्वीकार करनेमें लोगोंको समय लगेगा। उसका सादगीपूर्ण और कम खर्चीला रूप ही कई लोगोंको उसकी ओरसे विरक्त कर देगा; उसी प्रकार, जैसे चटपटे मसालेदार भोजनकी अभ्यस्त रसनाको सादे भोजनसे अरुचि होती है। सभी निर्णय सर्वदा निष्पक्ष और सन्देहसे परे भी नहीं होंगे। हमें ऐसा विश्वास करना चाहिए कि इस आन्दोलनकी अपनी खूबियाँ और पंच-अदालतोंके सही निर्णय इसके महत्वको सिद्ध करेंगे।

लोगों द्वारा कानूनी अदालतोंका पूरा ऐच्छिक बहिष्कार करा सकना अत्यन्त वांछनीय है। यह एक ही बात स्वराज्य ला सकती है। किन्तु हम यह अपेक्षा करके नहीं चले हैं कि हम असहयोगके किसी एक ही क्षेत्रमें पूर्णता प्राप्त करेंगे। जनमत इतना तो विकसित हो ही चुका है कि वह अदालतोंको हमारी स्वतन्त्रताके चिह्न नहीं, वरन् दासताके चिह्न मानने लगा है। उसने यह बात लगभग असम्भव कर दी है कि वकील- बैरिस्टर अपना धन्धा भी करें, और जनताके नेता भी कहलायें।

असहयोगने अदालतोंकी प्रतिष्ठाको बड़ी हदतक ध्वस्त कर दिया है और उसी हदतक सरकारकी प्रतिष्ठाको भी। विघटनकी प्रक्रिया धीरे-धीरे किन्तु निश्चित रूपसे