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वाइसरायके दो भाषण


किन्तु इन आज्ञाओंका दूसरा पहलू भी है। अब, जब कि हमें अदालतोंसे संरक्षण माँगनेकी कोई इच्छा नहीं है, इन आज्ञाओंकी वैधानिकतापर विचार करना व्यर्थ है। जो सरकार मनमाने ढंगसे शासन करना चाहती है, उसके लिए सब-कुछ वैध है या वह सब-कुछ वैध बना सकती है। किन्तु सहयोगवादी, तो भारतमें जो-कुछ हो रहा है, उसपर क्षण-भर विचार कर सकते हैं। कार्यकारिणी समितियोंके भारतीय सदस्य तथा उत्तरदायी मन्त्री भी इन आदेशोंके लिए उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने कि विभिन्न प्रान्तोंके गवर्नर। मान लीजिए कि असहयोगी लोग दुष्ट हैं। तो क्या सह्योगवादी उनके विरुद्ध सत्ताके मनमाने प्रयोगसे सन्तुष्ट हैं? गोरखपुरके श्री रघुपति सहाय[१] होना चाहते तो डिप्टी कलक्टर हो सकते थे। वे एक सुसंस्कृत शिक्षाशास्त्री हैं। किन्तु उनका यह दुर्भाग्य है कि उनमें संगठनकी योग्यता है, और गोरखपुरके नागरिकोंपर उनका प्रभाव है। मुझे अभी अख़बारोंसे मालूम हुआ कि उनकी भी वाणीकी स्वतन्त्रतापर रोक लगा दी गई है। देशमें कोई हिंसाका प्रचार नहीं करता——श्री रघुपति सहायसे तो ऐसी आशा ही नहीं की जा सकती। किन्तु इस "अपनी" सरकारके अधीन एक मजिस्ट्रेटको ऐसी सत्ता प्राप्त थी कि उसने उनके सार्वजनिक सभाओंमें बोलनेपर रोक लगा दी है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ९-३-१९२१

 

२१२. वाइसरायके दो भाषण

परमश्रेष्ठ वाइसराय महोदयने दो महत्वपूर्ण घोषणाएँ की हैं; एक खिलाफतपर[२] और दूसरी असहयोग[३] तथा उसके परिणामस्वरूप सरकारने अपनी जो नीति निर्धारित की है उसपर। खिलाफतपर परमश्रेष्ठने सरकारके मनोभावका बिलकुल सही आभास दे दिया है। वे समझते हैं कि भारतके मुसलमानोंके दावेकी सिफारिश करके उन्होंने उनके प्रति अपना उत्तरदायित्व पूरी तरह निभा दिया। इसके विपरीत, भारतीयोंका कहना है कि मुसलमानोंके लिए इतने महत्वपूर्ण मामलेमें वाइसराय महोदयको यह देखनेपर कि सम्राट्की सरकारने भारतीय दावेको नामंजूर कर दिया है, त्यागपत्र दे देना चाहिए था। राष्ट्रसंघकी समितिको बैठकमें ब्रिटेन बेबस था, यह दलील कोई भी स्वीकार नहीं करता। लोगोंको यह भी याद होगा कि जब सेवरकी सन्धिकी शर्तें प्रकाशित[४] हुई थीं, तब वाइसराय महोदयने उसमें प्रधान मन्त्री महोदयकी भूमिकाकी बड़ी लम्बी-चौड़ी वकालत की थी। लेकिन फिर ऐसा क्यों है कि वे उसके बाद अब

  1. रघुपति सहाय 'फिराक'; बादमें इलाहाबाद विश्वविद्यालयमें प्राचार्य; उर्दूके कवि।
  2. देखिए परिशिष्ट २ ।
  3. देखिए परिशिष्ट ३ ।
  4. १४ मई, १९२० को।