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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अकेले कैसे जाने देते? वे भी साथ हो लिये। २० फरवरीको, रविवारके दिन, सवेरे-सवेरे यह सिख दल आ पहुँचा।

नारणदासको गुरुद्वारेपर हमला होनेका भय तो पिछले कई दिनोंसे था ही। उसने तैयारी कर रखी थी। हथियार और गोला-बारूद आदि एकत्र कर रखा था। आसपास कोठरियाँ बना एक किले-जैसी दीवार खड़ी कर रखी थी और कोठरियोंमें बन्दूक दागने के लिए छेद बना रखे थे। मुख्य दरवाजेपर लोहे के मोटे पतरे जड़ दिये गये थे। ऐसी व्यवस्था की गई थी कि एक बार अन्दर जानेपर कोई व्यक्ति जीवित बाहर नहीं जा सकता था और दरवाजा बन्द होनेपर बाहरसे कोई एकाएक भीतर भी नहीं आ सकता था। मन्दिर इन कोठरियोंके लगभग मध्यमें स्थित है। अन्दर संगमरमरका फर्श है।

रविवारको लछमनसिंह और उनकी टुकड़ीने गुरुद्वारेमें प्रवेश किया। कहा जाता है कि उन्होंने केवल 'दर्शन' करनेके उद्देश्यसे ही प्रवेश किया था। उनका इरादा उस दिन कब्जा लेनेका न था।

नारणदास तो भयभीत था। अपराधीका मन कायर होता ही है। वह पागल ही हो गया था। वह अकाली दलको अपना शत्रु मानता था। लछमनसिंहने ग्रन्थसाहबके आगे जिस समय अपना सिर झुकाया उसी समय नारणदासके भाड़के हत्यारोंने गोली बरसाना शुरू किया। कहते हैं कि हत्यारे कोठरियोंकी छतोंपर थे। ग्रन्थसाहबपर और संगमरमरकी छत्रीके स्तम्भोंपर मैंने गोलियोंके निशान देखे हैं।

लछमनसिंह गिर पड़े। वे बुरी तरह घायल हो गये थे; शरीर लहूलुहान था पर वे थे अभी जीवित। कोई कहते हैं कि उन्हें इसी अवस्थामें घसीट कर ले जाया गया और पास के एक पेड़से बाँधकर जला दिया गया। मैंने पेड़का जला हुआ तना और रक्तकी लकीरें भी देखी हैं।

टुकड़ीके अन्य लोगोंने कोठरियोंमें शरण ली। कोई कहीं और कोई कहीं, इस तरह सब अपनी जान बचानेकी कोशिश करने लगे। लेकिन महन्त तो पागल हो गया था। और उसके पास हत्यारोंका दल था ही। उसने सबको जानसे मार डालनेका निश्चय किया। इन कोठरियोंमें ये सुधारक वीर जहाँ-जहाँ छिपे हुए थे, उन्हें वहीं-वहाँ ढूँढ़वाकर उसने उन्हें बुरी तरह पीटा, अधमरा कर दिया और अन्तमें उनके हाथ-कान आदि काट लिये गये। क्षणभरके लिए इस पवित्र भूमिपर मनुष्य राक्षस बन गया। उसने डायरको भी मात कर दिया। इतना ही काफी नहीं था। कौन जाने अपनी निर्दयतासे लज्जित होकर अथवा इस शर्मको बँकनेके लिए कि उसके पक्षका एक भी व्यक्ति नहीं मारा गया, इस विकराल महन्तने लाशोंको इकट्ठाकर उनपर मिट्टीका तेल छिड़ककर उन्हें भस्म कर दिया। गुरुद्वारेमें जो लोग गये थे उनमेंसे एक भी व्यक्ति जीवित बाहर न आ सका। अकाली दलकी ओरसे अभीतक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो इसकी साक्षी दे सके। दलीपसिंह बाहर ही रह गये थे। कहा जाता है कि उन्होंने महन्तको समझाया बुझाया। लेकिन वह क्या कोई बात सुनने-समझनेवाला था? उसने दलीपसिंहकी भी हत्या कर डाली और उन्हें बाहर ही जला डाला।