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सिख जागृति


सिखोंके मन्दिरको गुरुद्वारा कहते हैं। सुधारकोंका खयाल है कि गुरुद्वारोंमें आचारका स्तर गिर गया है और उनमें रहनेवाले महन्त बहुधा दुराचारी और पाखण्डी होते हैं। कुछेक गुरुद्वारे ऐतिहासिक हैं। ऐसे सब गुरुद्वारोंपर कब्जा करना, उसके सुधारक इष्ट समझते हैं। यह आन्दोलन उनमें सुधार दाखिल करने तथा उन्हें एक समितिकी सत्ताके अधीन करनेके लिए चलाया जा रहा है। वह पिछले कुछ वर्षोंसे चल रहा है। उसमें कुछ बड़े-बड़े सिख नेता, जैसे कि सरदार सुन्दरसिंह मजीठिया, भी शामिल हैं। असहयोग आन्दोलनके बादसे यह आन्दोलन कुछ अधिक उग्र हो गया है। सिखोंके मण्डल जिन्हें अकाली जत्था या अकाली दल कहा जाता है, इन गुरुद्वारोंका कब्जा लेते जाते हैं। ऐसे दल स्थान-स्थानपर फैल गये हैं। अमृतसर उनका गढ़ है। ये अकाली सिख पूर्वोक्त पाँच वस्तुओंको धारण करते हैं, इतना ही नहीं, वे काली पगड़ी बाँधते हैं, कन्धेपर काले रंगकी पट्टी रखते हैं और एक मोटी लाठी भी रखते हैं जिसके सिरपर एक छोटा-सा परशु लगा हुआ होता है। किसी-किसी लाठीमें परशु नहीं होता। ऐसी टुकड़ियोंके पचास अथवा सौ व्यक्ति जाकर गुरुद्वारोंका कब्जा लेते हैं। उनका कहना यह है कि इन टुकड़ियोंका इरादा जबरदस्तीसे कब्जा लेनेका नहीं होता, ये लोग स्वयं मार खाते हैं परन्तु मारते नहीं। फिर भी पचास अथवा अधिक व्यक्तियोंकी टोलीका किसी स्थानपर इस रूपमें जाना एक प्रकारसे शस्त्रबलका प्रदर्शन ही है और उससे गुरुद्वारेके रक्षकोंका डरना भी स्वाभाविक ही है।

इस कार्यमें जबरदस्तीका प्रदर्शन हो या न हो, लेकिन इससे उनके एकाधिक बड़े गुरुद्वारे अकाली जत्थेके कब्जेमें आ गये हैं और इस प्रयत्नमें उन्हें लगभग १६० व्यक्ति खोने पड़े हैं।

सबसे अधिक व्यक्तियोंकी जानें इन गुरुद्वारोंमें सर्वश्रेष्ठ गुरुद्वारेका कब्जा लेनेमें गईं। इस गुरुद्वारेका नाम ननकाना साहब है। वह लाहौरसे चालीस मील दूर है। रेलवे स्टेशनका नाम भी वही है। यह गुरुद्वारा गुरु नानककी यादमें बनवाया गया है। ननकानामें एक नहीं बल्कि पाँच गुरुद्वारे हैं। उसमें एक स्थान ऐसा है जहाँ कहा जाता है कि एक सर्पने निर्दोष भावसे गुरु नानकके सिरपर अपने फनकी छाया की थी। इस गुरुद्वारेपर महन्त नारणदासका कब्जा था। कहते हैं कि वह विषयी व्यक्ति था। उदासी होनेके बावजूद उसने एक स्त्री रख छोड़ी थी। अनुमान किया जाता है कि उसकी वार्षिक आय पाँच लाख होगी। इस गुरुद्वारेपर अकाली दलकी नजर पहलेसे ही थी। उनका विचार ३-४ मार्चको कोई कदम उठानेका था। लेकिन स्वर्गीय सरदार लछमनसिंह और स्वर्गीय सरदार दलीपसिंह प्रतीक्षा न कर सके। ये दोनों सरदार लखपति थे। इनमें से पहले सरदारने ननकाना साहब जानेका निश्चय किया। उनके साथ लगभग दो सौ व्यक्ति होंगे। सरदार दलीपसिंहने सरदार लछमन सिंहको रोका। लेकिन उन्होंने कहा कि मैं यह प्रतिज्ञा करके चला हूँ कि 'मुझे ग्रन्थसाहबके आगे माथा टेकना है, वैसा करते हुए अगर भाग्यमें मरना लिखा होगा तो मरूँगा।' पिछली रात ही सरदार दलीपसिंह अन्य सिख भाइयोंके साथ मुझसे बातचीत कर रहे थे। मौत उनको खींचकर ननकाना साहब ले गई। भला वे अपने मित्रको