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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहता है और अगर आपको भी ऐसा महसूस होता हो तो आपको यह पूछनेकी जरूरत ही नहीं रह जायेगी कि हमारे लिए दूसरे स्कूलोंकी व्यवस्था है या नहीं। बिना शर्तके स्कूलोंका त्याग करना स्वतन्त्रताका पहला पाठ है। लेकिन अगर आपमें धीरजका अभाव हो――आपमें स्कूलोंका त्याग करके नई राष्ट्रीय पाठशालाके स्थापित होनेतक उसके लिए पैसे इकट्ठे करनेका, भिक्षा माँगकर रहनेका धीरज न हो तो आप हरगिज शाला न छोड़ें।

आपको शारीरिक श्रम करने की शिक्षा मिलनी चाहिए। अंग्रेज लड़के जब स्कूलों-कालेजोंसे निकलते हैं तब उनमें शारीरिक श्रम करनेकी शक्ति तो होती ही है। लेकिन अगर आप पढ़-लिखकर वकील अथवा सरकारी नौकर होनेकी आकांक्षा रखते हों तो आपके लिए यही पाठशालाएँ ठीक हैं। दक्षिणमें मधुकरीकी जो प्राचीन प्रथा आज भी मौजूद है उसके गौरवको आप समझ सकते हो तो आप भिक्षा माँगकर भी शिक्षा प्राप्त करें। आपमें भिक्षा माँगकर शिक्षा लेनेकी सामर्थ्य न हो तो में आपकी माफंत देशकी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं करना चाहता।

यह शिक्षा नास्तिकताकी शिक्षा है। ऐसी शिक्षाके बावजूद जिन्हें ईश्वरमें श्रद्धा हो, जिसे इन्द्रियोंपर काबू, हो, जिसने अहिंसा और अस्तेयका पालन किया हो, अन्तरकी आवाज तो वही सुन सकता है। मैं केवल संयमका पालन करनेवाले विद्यार्थियोंसे कहता हूँ कि अगर आपको ईश्वरीय निर्देश मिले तो आप बेधड़क कालेज छोड़ दें।

मुझे ऐसे ही विद्यार्थियोंकी आवश्यकता है जिनमें समय आनेपर बलिदान देनेकी, फाँसीपर चढ़नेकी, भिक्षा माँगनेकी शक्ति हो। यदि देश तथा मुसलमानोंपर हुए अत्याचारोंसे आपके हृदय में अग्नि धधक रही हो तो आप कालेज छोड़ सकते हैं।[१]

[गुजराती से]

नवजीवन, ८-१२-१९२०

भाषणकी समाप्तिपर गांधोजीने विद्यार्थियोंसे प्रश्न पूछनेके लिए कहा। एक विद्यार्थाने पूछा कि कोई विद्यार्थी तकनीकी अथवा कोई अन्य शिक्षा पानेके लिए इंग्लैंड अथवा किसी अन्य यूरोपीय देशमें जा सकता है या नहीं। श्री गांधीने कहा कि मैं इसे पसन्द नहीं करूंगा लेकिन अगर कोई विद्यार्थी जाना चाहे तो जा सकता है। विद्यार्थीने फिर पूछा क्या वह जापान अथवा अमेरिका जा सकता है जो कि स्वतन्त्र राष्ट्र हैं। श्री गांधीने कहा कि उनके लिए सब एक समान हैं। वे भारत नहीं है।”

  1. २६-११-१९२० के लीडरमें प्रकाशित भाषणकी रिपोर्टके अन्त में या है “मेरा भाषण सोलह वर्षसे अधिक उम्रके विद्यार्थियों के लिए है। किसी भी स्थिति में हिंसाका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। मेरे कुछ मुसलमान मित्रोंने बताया कि वे असहयोगको आजमायेंगे, लेकिन अगर वह सफल न हुआ तब वे तलवारको अपनाएँगे। मैं तलवारका प्रयोग करनेकी बातके विरुद्ध हूँ। जो विद्यार्थी स्कूलोंका त्याग करें, अगर उनके अभिभावक उन्हें आर्थिक सहायता देनेसे इनकार करें तो उन्हें अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए पत्थर तोड़ने चाहिए अथवा भीख माँगनी चाहिए। इस तरह उन्हें अपना और अपने गुरुका पेट भरना चाहिए। सिर्फ उन्हीं विद्यार्थियोंको बिना किसी शर्तके स्कूलों और कालेजोंको छोड़ना चाहिए जो कष्ट सहनेके लिए तैयार हों, लेकिन केवल उत्तेजनावश उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।