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१६.तार: जयरामदास दौलतरामको[१]

२३ नवम्बर, १९२० को या उसके बाद]]

निश्चय ही में जनताको सामाजिक बहिष्कारसे जो कि राजनीतिक बहिष्कारसे भिन्न है, परावृत्त करूंगा। राजनीतिक बहिष्कारको सर्वथा आवश्यक मानता हूँ।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ७३५३) की फोटो-नकल से।

१७. और कठिनाइयाँ

गुजरात विद्यापीठकी सीनेटने विद्यापीठसे सम्बद्ध स्कूलोंमें ‘दलितवर्गों’ के बच्चोंकी भरतीके सम्बन्धमें श्री एन्ड्रयूजके सवालके सिलसिलेमें जो प्रस्ताव [२] रखा उससे अहमदाबादमें सनसनी फैलनेका समाचार मिला है। उससे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के एक संवाददाताको न केवल सन्तोष हुआ बल्कि इसीसे उसे सीनेटके संविधान में एक और दोषका भी पता चला है ――वह दोष यह है कि उसमें कोई मुसलमान सदस्य भी नहीं है। लेकिन मैं पाठकोंको बताना चाहूँगा कि यह बात विद्यापीठके स्वरूप में राष्ट्रीयताके अभावका प्रभाव नहीं है। हिन्दू-मुस्लिम एकता केवल कहने-भरकी बात नहीं है। इसके लिए किसी बनावटी सबूतकी जरूरत नहीं है। सीनेटमें कोई मुसलमान प्रतिनिधि न होतेका सीधा-सा कारण यही है कि राष्ट्रीय शिक्षा-आन्दोलन में दिलचस्पी लेनेवाला कोई ऐसा उच्च शिक्षा प्राप्त मुसलमान नहीं मिला, जो इस कामके लिए अपना समय दे सकता। मैं इस बातका उल्लेख सिर्फ यह दिखाने के लिए कर रहा हूँ कि इस आन्दोलनको लांछित करने के लिए, हमारे उद्देश्योंका गलत अर्थतक लगाकर किये जा रहे प्रयत्नोंसे निपटने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। यह एक सतही कठिनाई है और इससे आसानीके साथ निपटा जा सकता है।

  1. जयरामदास दौलतराम; सिधक एक कांग्रेसी नेता। यह उनके २३ नवम्बर, १९२० के तारके जवाब में भेजा गया था। जयरामदासका तार इस प्रकार था: “कुछ हिन्दू असहयोगियों, जिनमें दुर्गादास, गोविन्दानन्द, चोश्थराम, घनश्याम, जयरामदास और हिन्दूके सम्पादक तथा अन्य लोग भी थे, की आज एक बैठक हुई। सामाजिक बहिष्कारके सुझावोंपर बातचीत की। सबको राय सामाजिक बहिष्कारके विरुद्ध रही; क्योंकि उससे हमें लाभ नहीं होगा, हमारे आन्दोलनमें बाधा पड़ेगी, और उससे लोगोंपर अत्याचार करनेके अवसर उत्पन्न होंगे। आपसे अनुरोध है कि इस मामले में अपने प्रभावका उपयोग करें।”
  2. देखिए पाद-टिप्पणी १, पृष्ठ ८।