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२६६. विचारमय जीवन

मुझे अपनी यात्राके दौरान मीठे और कड़वे, दोनों ही प्रकारके अनुभव होते रहते हैं। मध्यप्रान्तकी यात्रा मुझे लम्बे समयतक याद रहेगी। हम वर्धा १७ तारीखकी सुबह पहुँचे थे। उसी दिन मोटरसे आर्वी और आष्टी जाना था। रास्ता लगभग ६० मीलका था। दोपहरके एक बजे निकलकर रातके दस बजे वापिस वर्धा पहुँचना था। लेकिन ईश्वरके मनमें कुछ और था। रास्तेमें मोटर खराब हो गई। आष्टी तो किसी तरह पहुँच गये। वापसीमें दूसरी मोटर भी खराब हो गई और सो भी ऐसी जगह जहाँ कोई मदद नहीं मिल सकती थी। अन्तमें एक गाँवके समीप पहुँचे। वहाँसे बैल- गाड़ीमें जाना निश्चित हुआ । रातके एक बजे बैलगाड़ीकी यात्रा शुरू हुई। मैं थका हुआ था। आँखोंमें नींद भी भरी हुई थी। मुझे क्या पड़ी थी जो मैं यह देखता कि बैल कैसे हैं और बैलोंको हाँकनेवाला कैसा है ? नींदमें केवल यही समझमें आ रहा था कि बैल घोड़ेकी चालसे चले जा रहे हैं। बीच-बीचमें कम रफ्तारसे चलने लगते थे लेकिन ज्यादातर तो दौड़ते ही जा रहे थे। बैल दौड़े, यह बात किसे अच्छी नहीं लगती। मैंने सोचा, “ठीक है; हम जल्दी घर पहुँचेंगे। इस तरफके बैल अच्छे होंगे। "

सुबह हुई और जब मैं जागा तो मैंने देखा कि बैल हाँकनेवालेकी हँकनीमें आर लगी हुई है; वह उसे बैलोंके पुट्ठोंमें चुभोता है और इस तरह उन्हें दौड़ाता है। बैल बेचारे इस पीड़ाके कारण रास्तेमें पोंकते चले जा रहे हैं ।

इस दृश्यको देखकर मेरी जो दीन दशा हुई उसका अगर पाठक अन्दाज लगा सकें तो लगा लें । मेरे मनमें उसी समय गाड़ीसे उतर जानेकी इच्छा हुई। मुझे लगा कि इससे तो मोटरकी यात्रा हजार गुना अच्छी है। फिर मैंने सोचा कि मोटरके कार- खानेमें भी मोटर बनानेवाले अंग्रेज और अमेरिकी मजदूरोंकी क्या हालत होती होगी, इसे कौन जानता है? कौन जाने मोटरकी अपेक्षा बैलगाड़ीमें बैठनेमें कम पाप हो सकता है ! — इस तरह मैं मन-ही-मन विचार करता जाता था और बैलोंके कष्टको देखता जाता था। दो-एक मिनट तो मैंने उसे सहन किया। बादमें बैलके मालिकसे उसकी हँकनी माँगी। उसने हँकनी मुझे दे दी।

वह समझ गया । वह मुझे पहचानता नहीं था। मुझे "बाबाजी" के नामसे पुकारता था । "महात्मा " की अपेक्षा "बाबाजी" मुझे अधिक प्रिय लगा। मेरी पोशाकसे उसने मुझे "बाबा" माना । "बाबाजी " की पोशाक पहनना आसान है। "बाबाजी "के गुण प्राप्त करना मुश्किल है । तथापि हिन्दुस्तानके भोले लोग तो पहरावेकी सादगीसे हमेशा भुलावेमें आते रहे हैं; और आते रहेंगे।

मैंने गाड़ीवानको लकड़ीकी मूठका इस्तेमाल करनेकी सलाह देकर हँकनी उसे वापस दे दी और कहा कि बैलको दौड़ानेकी कोई जरूरत नहीं, अगर हम घंटाभर देरसे भी पहुँचे तो कोई चिन्ता नहीं। मैंने उससे आरको निकाल देनेकी विनती की।