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प्रर्थनापत्र : उपनिवेश-मंत्रीको

पर प्रार्थना की गई थी कि नेटालमें जो कानून भारतीयोंकी स्वतन्त्रतापर प्रतिबन्ध लगाने के लिए बनाये जायें, उनपर सम्राज्ञी-सरकार अपनी स्वीकृति न दे। इन प्रार्थनायकोंपर इनमें आपत्ति उठाई गई थी उनमें से अनेकपर सम्राज्ञीकी स्वीकृति रोक लेने के लिए वह तैयार नहीं हुई। अपने अन्तिम लक्ष्यकी पूर्ति के लिए यूरोपीयोंने परीक्षणके रूपमें जो प्रथम प्रयत्न किये थे, उनके बहुत-कुछ सफल हो जानेका परिणाम यह निकला कि गत सात महीनोंमें उन्होंने अनेक भारतीय-विरोधी संस्थाएँ संगठित कर ली, और इस समस्याने अति विकट रूप धारण कर लिया। इन परिस्थितियोंमें, नेटालके भारतीय समाजके हितकी रक्षाके लिए, प्रार्थी अपना कर्तव्य समझते हैं कि गत सात महीनोंमें जो भारतीय-विरोधी आन्दोलन हुआ उसकी एक पर्यालोचना सम्राज्ञीसरकारके सामने उपस्थित कर दें।

७ अप्रैल, १८९६ को, टोंगाट शुगर कम्पनीने प्रवासी न्यास-निकायसे प्रार्थना की कि उसे भारतसे निम्नलिखित एक-एक कारीगर ला दिया जाये : राज, रेलकी पटरी बिछानेवाला, पलस्तर करनेवाला, रंगसाज, गाड़ी बनानेवाला, पहिये चढ़ानेवाला, बढई, लुहार, फिटर, खरादिया, ढलैया, और ठठेरा। न्यास-निकायने यह प्रार्थना स्वीकृत कर ली। यह सूचना समाचार-पत्रोंमें प्रकाशित होते ही उपनिवेशमें प्रतिवादका तुफान सा उठ खड़ा हुआ। स्थानीय पत्रोंमें विज्ञापन निकलने लगे कि पीटरमैरित्सबर्ग और डर्बनमें, इस स्वीकृतिका विरोध करने के लिए, सभाएं की जायेंगी। पहली सभा डर्बनमें ११ अगस्तको हई और उसमें गरमागरम भाषण किये गये। कहा जाता है कि इस सभामें उपस्थिति अच्छी थी। इस आन्दोलनका फल यह हुआ कि टोंगाट शुगर कम्पनी को अपना प्रार्थनापत्र यह कहकर वापस ले लेना पड़ा : "चूंकि हमारे प्रार्थनापत्रका इतना तीव्र और सर्वथा अकल्पित विरोध किया जा रहा है इसलिए हमने उसे वापस ले लेनेका निश्चय कर लिया है। परन्तु आन्दोलन इस प्रार्थनापत्रकी वापसीके साथ शान्त नहीं हुआ। सभाएँ होती रहीं, और उनमें वक्ता अपनी मर्यादाओंसे भी आगे बढ़कर भाषण करते रहे। प्राथियोंका नम्न विचार है कि जहाँतक कुशल मजदूरोंको सरकारी संरक्षणमें लानेका विचार किया गया था, वहाँतक तो इस प्रार्थनापत्रका विरोध सर्वथा उचित था और यदि आन्दोलन उचित सीमामें रहता तो इसके बाद जो घटनाएँ घटी, वे न घटतीं। इन सभाओंमें कई वक्ताओंने जोर देकर कहा कि इस मामले में भारतीयोंको दोष देना उचित नहीं, दोष सारा शुगर कम्पनीका है। परन्तु इनमें से अधिकतर भाषणोंको ध्वनि श्रोताओंकी भावनाओंको एकदम भड़का देनेवाली थी। समाचार-पत्रोंमें प्रकाशित चिट्ठी-पत्रियोंका रुख भी बहुत-कुछ ऐसा ही था। आन्दोलनकारियोंने हालतोंका बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया, सारी भारतीय समस्याको बीचमें घसीट लिया और भारतीयोंकी जी-भरकर निन्दा की। प्रार्थियोंका नम्र मत है कि इन सभाओंसे भारतीय समाजके इस दावेका समर्थन हो गया कि उपनिवेशमें सबसे अधिक घृणा और भ्रम भारतीयोंके ही विरुद्ध फैला हुआ है। उन्हें 'घिनौने कीड़े' बतलाया गया। मैरित्सबर्गकी एक सभामें एक वक्ताने कहा : "कुली