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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय


निश्चय ही, मालकी उपलब्धि और माँगकी आर्थिक पुकार, आपका ब्रिटिश प्रजाओंका देशभक्त संघ, आपका मुक्त व्यापारका शानदार नारा, जिसमें अपना विश्वास प्रकट करने के लिए जॉन बुल को नाकों चने चबाकर कीमत चुकानी पड़ती है—इन सबका तकाजा है कि यह चीख-पुकार न हो।

आस्ट्रेलियाने अपने यहाँ काले लोगोंका प्रवेश निषिद्ध कर दिया है। परन्तु हड़तालों और बैंकोंपर धावोंसे कोई बड़ा सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत नहीं होता। कुली लोग यूरोपीयोंकी अपेक्षा हलके कपड़े और जूते पहनते हैं। फिर भी वे इस मामलेमें हमारी पृथक् बस्तियोंमें रहनेवाले वतनियोंसे आगे हैं। कई बरस पहले खेतोंपर काम करनेवाले गोरे पुरुषों या स्त्रियोंके, या शहरोंके दंभी समाजके बच्चोंके पैरोंमें भी, जबतक वे किसी पार्क या सभामें न जाते होते, बूट शायद ही कभी देखने को मिलते थे। यह रिवाज जूता बनानेवालों के लिए भले ही खराब रहा हो, उनके पाँवोंको इससे कोई नुकसान नहीं होता था। कुली लोग मांस नहीं खाते, या शराब आदि नहीं पीते। उनकी यह आदत, मुझे फिर कहना होगा, कसाइयों और परवाना-प्राप्त कलालोंकी दृष्टिसे खराब है। विश्वास रखिए,ये सब बातें धीरे-धीरे ठीक हो जायेंगी परन्तु (सभ्यता, शिष्टता या संयमकी दृष्टिसे जन-हितके लिए जितना करना उचित है उससे भी आगे बढ़कर) लोगोंको खान-पान या पहरावेके मामलोंमें संसदके कानून द्वारा विवश करना निरा अत्याचार है, जन-हितकारी कानून बनाना नहीं। क्या गोरे प्रवेशार्थियोंके समूहोंको भी बाहर ही रोका जाता है? जबतक यहाँ वतनी आबादी है, तबतक गोरे लोग, केवल गुजारे-लायक मजदूरी लेकर काम करने को तैयार नहीं होंगे। वे निकम्मे बैठना पसन्द करेंगे, काम करना नहीं। हाँ, उन सबको आप हाँक सकें तो बात और है।

हम हालातसे बचकर नहीं चल सकते। हमारा उपनिवेश काले लोगोंका देश है। और मैं कितना ही क्यों न चाहूँ कि हमारे वतनी लोग अपने उचित स्थानपर रहें। और कुली भी, जो अपने उचित स्थानपर रहनेके लिए ज्यादा रजामन्द हैं। फिर भी गोरे लोगोंका काम तो मालिकका ही है, और रहेगा भी। इसे भी जाने दीजिए। मैं यह चर्चा करना नहीं चाहता कि किस प्रकार गरीब किसान, अपने शौकीन दोस्तों, अर्थात् शहरी कारीगरोंका मेहनताना नहीं चुका सकते, और इसलिए वे किसी कच्चे कारीगरसे घटिया काम करवाकर भी खूब खुश रहते हैं। परन्तु मैं कुशल कारीगरोंसे इतनी अपील अवश्य करना चाहता हूँ कि वे अपना पारिश्रमिक स्वयं नियत करने और उसीमें सन्तुष्ट रहने की कृपा करें। वे अपने निर्बल विरोधियोंसे न डरें। और क्योंकि शहरोंमें उनकी संख्या कहीं अधिक है इसलिए वे वर्ग-संघर्षसे, जाति-कलहसे बचकर चलें। सुयोग्य आदमीको अपनी पूरी कीमत हमेशा मिलती ही है। यही बात