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प्रर्थनापत्र : उपनिवेश-मंत्रीको

सख्त कैद, या जुर्माने और तीन महीनेतक की कैदसे अधिक नहीं होगा। (१८) इस अधिनियम या इसके अधीन बनाये गये नियमोपनियमोंका उल्लंघन करने के सब अपराधोंके विरुद्ध और १०० पौंडतक के जुर्मानों या वसूलियोंके सब मुकदमोंपर कार्रवाई करने का अधिकार मजिस्ट्रेटोंको होगा।

इस अधिनियमकी अनुसूची क[१], एक कोरा प्रमाणपत्र है। जिस व्यक्तिका नाम उसमें भर दिया जायेगा, उसे "नेटालमें प्रवेशके लिए योग्य और उपयुक्त व्यक्ति" माना जायेगा। अनुसूची ख[२] उस प्रार्थनापत्रका फॉर्म है जिसे कि इस ऐक्टके अमलसे बरी होनेका दावा करनेवाले व्यक्तियोंको भरना पड़ेगा।

ये तीनों विधेयक शायद शीघ्र ही विचारके लिए सम्राज्ञीकी सरकारके सामने आयेंगे। यदि ऐसा हुआ तो शायद आपके प्राथियोंको इन विधेयकोंके[३] विषयमें आपकी सेवामें फिर उपस्थित होना पड़े। अभी तो आपके प्रार्थी केवल इतना निवेदन करके सन्तोष मान रहे है कि यद्यपि इन तीनों विधेयकोंमें से किसीका भी उद्देश्य प्रकट नहीं किया गया है, तो भी इन सबकी रचना भारतीय समाजके विरुद्ध की गई है। इसलिए यदि सम्राज्ञीकी सरकार इस सिद्धान्तको मानती हो कि भारतीय लोगोंपर ब्रिटिश उपनिवेशोंमें पाबन्दियाँ लगाई जा सकती हैं, तो यह कहीं अधिक अच्छा होगा कि वैसा खुल्लमखुल्ला किया जाये। उपनिवेशकी भावना भी यही जान पड़ती है, जैसाकि निम्न उद्धरणसे प्रकट होता है।

'नेटाल एडवर्टाइज़र' ने प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके विषयमें अपने १२ मार्च, १८९७ के अंक में लिखा है :

यह सीधा-सादा और ईमानदारीका उपाय नहीं है, क्योंकि इसमें इसके वास्तविक उद्देश्यको छिपाने की चेष्टा की गई है, और उसे स्वीकार तभी किया जा सकता है जबकि इसपर अमल अधूरे ढंगसे किया जाये। इसके विधानोंको यदि यूरोपीय प्रवेशाथियोंपर भी पूरी तरह लागू किया गया तो उससे उपनिवेशको हानि होगी। और यदि इसका प्रयोग केवल एशियाइयोंके विरुद्ध किया गया तो वह एक दूसरी दिशामें उतने ही अन्याय और अनौचित्यकी बात हो जायेगी।...यदि उपनिवेश एशियाई प्रवासी विरोधी विधेयक चाहता है तो अच्छा हो कि हम एशियाई प्रवासी विरोधी बिल ही बना लें। ...यहाँतक तो हम प्रदर्शन-समितिके मन्तव्यसे सहमत हो सकते हैं, परन्तु उसके द्वारा अपनाई गई युक्तियाँ कुछ खास असरकारक नहीं थीं।...बहकना भी एक भूल थी, जैसीकि डॉ॰ मैकेंजीने अपनी लड़ाई आप लड़ने और

  1. देखिए पृ॰ २९९।
  2. देखिए पृ॰ ३००।
  3. जब बादमें ये तीनों विधेयक स्वीकार हुए, उस समय श्री चेम्बरलेनको एक प्रर्थनापत्र भेजा गया था। देखिए पृ॰ २८२–३०३।

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