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दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतीयोंकी कष्ट-गाथा

उन्होंने प्रार्थनाके प्रति सहानुभूति तो व्यक्त की है, परन्तु पंचका निर्णय स्वीकार कर लिया है। तथापि उन्होंने समय-समयपर ट्रान्सवाल-सरकारसे मैत्रीपूर्ण निवेदन करते रहने का वादा किया है और इसका अधिकार सुरक्षित रखा है। और अगर निवेदन काफी जोरदार हुए तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि अन्ततः हमें न्याय प्राप्त होकर रहेगा। इसलिए हम सार्वजनिक संस्थाओंसे प्रार्थना करते हैं कि वे अपने प्रभावका उपयोग करें, ताकि ये निवेदन ऐसे हों जिनका वांछित परिणाम हो सके। मैं एक उदाहरण दे दूँ। मालाबोक-युद्धके[१] समय जब ब्रिटिश प्रजाजनोंको भरती किया जा रहा था, बहुत-से लोगोंने विरोध किया था और ब्रिटेनकी सरकारसे हस्तक्षेप करने की मांग की थी। पहले-पहल जो उत्तर दिया गया वह इस आशयका था कि ब्रिटेनकी सरकार गणराज्यके मामलोंमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसपर समाचार-पत्र बौखला उठे और फिरसे जोरदार शब्दोंमें प्रार्थनापत्र भेजे गये। आखिरकार टान्सवाल-सरकारके पास यह अनुरोध-पत्र पहुँचा कि ब्रिटिश प्रजाजनोंको भरती न किया जाये। यह हस्तक्षेप नहीं था, फिर भी अनुरोधको माने बिना रहा नहीं जा सकता था और ब्रिटिश प्रजाजनोंकी भरती रोक दी गई। क्या हम आशा करें कि हमारे विषयमें भी ऐसा ही सफल अनुरोध किया जायेगा? हमारा निवेदन है कि हमारा समाज भले ही भारत विरोधी आन्दोलनसे सम्बन्ध रखनेवाले समाजके बराबर महत्त्व न रखता हो, फिर भी हमारी शिकायतें उसकी शिकायतोंसे बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

चाहे ऐसा कोई अनुरोध किया जाये या न किया जाये, पंचके निर्णयसे ऐसे प्रश्न उठेंगे, जिनपर श्री चेम्बरलेनको ध्यान देना ही होगा। ट्रान्सवालके सैकड़ों भारतीय वस्तु-भंडारोंका क्या किया जायेगा? क्या वे सब बन्द कर दिये जायेंगे? क्या उन सब लोगोंको पृथक् बस्तियोंमें रहने को बाध्य किया जायेगा, और अगर हाँ, तो कौनसी बस्तियोंमें? दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यकी राजधानी प्रिटोरियामें रहनेवाले मलायी लोगोंको हटाने के सिलसिले में ब्रिटिश एजेंटने ट्रान्सवालकी बस्तियोंका वर्णन इस प्रकार किया है :

जिस स्थानका उपयोग कूड़ा-करकट इकट्ठा करने के लिए होता है और जहाँ शहर और बस्तीके बीचके नालेमें झिर-झिरकर जानेवाले पानीके सिवा पानी है ही नहीं, उसपर बसी हुई छोटी-सी बस्तीमें लोगोंको ठूस देनका अनिवार्य परिणाम यह होगा कि उनके बीच भयानक किस्मके बुखार और दूसरे रोग फैल जायेंगे। इससे उनके प्राण और शहरमें रहनेवाले लोगोंका स्वास्थ्य भी खतरे में पड़ जायेगा। (सरकारी रिपोर्ट—'ग्रीन बुक', संख्या २, १८९३, पृ॰ ७२)।

अगर उन्हें अपने वस्तु-भंडार बेचने के लिए बाध्य किया गया, तो कोई मुआवजा दिया जायेगा या नहीं? फिर, कानून स्वयं अस्पष्ट है। पंचसे उसकी व्याख्या करने को कहा गया था। उसने अब यह काम ट्रान्सवालके उच्च न्यायालयपर छोड़ दिया

  1. १८९४ में उत्तरी ट्रान्सवालकी मालबोक नामक जनजातिके साथ बोअर लोगों का युद्ध।