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टिप्पणियाँ : दक्षिण अफ्रीकावासी ब्रिटिश भारतयोंकी कष्ट-गाथा

करने के लिए एक पृथक् कानून है। उसके अनुसार, और बातोंके अलावा, यह जरूरी है कि देशी व्यक्ति एक निर्वाचन-क्षेत्रमें लगातार १२ वर्षतक रहा हो और वह उपनिवेशके देशी लोगोंसे सम्बन्धित कानूनसे मुक्त कर दिया गया हो।

उपनिवेशके आम मताधिकारके अन्तर्गत—अर्थात् उपर्युक्त शाही फरमानके अनुसार—ब्रिटिश प्रजाजनकी हैसियतसे भारतीय १८९३ के बादतक निर्वाचनके पूरे-पूरे अधिकारोंका उपभोग करते रहे। १८९४ में उत्तरदायी शासनकी दूसरी संसदमें एक कानून पास किया गया। वह था १८९४ का कानून नम्बर २५। उसके अनुसार एशियाई वंशके लोगोंको अपने नाम मतदाता-सूचीमें दर्ज कराने के अयोग्य ठहरा दिया गया। सिर्फ उन लोगोंको इससे मुक्त रखा गया, जिनके नाम पहलेसे ही वाजिब तौरपर मतदाता-सूचीमें दर्ज थे। कानूनको प्रस्तावनामें कहा गया कि ऐसे लोग मताधिकारके अभ्यस्त नहीं हैं।

ऐसा कानून पास करने का सही कारण भारतीयोंकी मान-मर्यादा गिराना और उन्हें धीरे-धीरे दक्षिण आफ्रिकी देशी लोगोंके स्तरपर उतार देना था, ताकि भविष्यमें किसी भी इज्जतदार भारतीयका उपनिवेशमें रहना असम्भव हो जाये। इसपर विधानसभाको एक प्रार्थनापत्र दिया गया, जिसमें इस विचारका विरोध किया गया कि भारतीय प्रातिनिधिक संस्थाओंके अभ्यस्त नहीं हैं। उसमें यह मांग भी की गई कि विधेयकको वापस ले लिया जाये या इस बातकी जाँच कराई जाये कि भारतीय मताधिकारका प्रयोग करने के योग्य है अथवा नहीं (सहपत्र १, परिशिष्ट-क)।[१]

प्रार्थनापत्र खारिज कर दिया गया। इसलिए जब विधेयक विधानपरिषदके सामने पहुँचा तो एक दूसरा प्रार्थनापत्र उसके नाम दिया गया। उसे भी खारिज कर दिया गया और विधेयक पास हो गया (सहपत्र १, परिशिष्ट-ख)।[२]

तथापि, विधेयकके कार्यान्वित होने के लिए सम्राज्ञीकी स्वीकृतिकी जरूरत थी। भारतीय समाजन सम्राज्ञीके मख्य उपनिवेश-मंत्रीके नाम एक स्मरणपत्र भेजकर विधेयकका विरोध किया और उनसे अनरोध किया कि या तो विधेयकको रद कर दिया जाये, या ऊपर बताये हुए तरीकेकी जाँच कराई जाये। स्मरणपत्र पर लगभग ९,००० भारतीयोंने हस्ताक्षर किये थे (सहपत्र १)।[३] सम्राज्ञीकी सरकार और नेटालके मंत्रिमण्डलके बीच अच्छा-खासा पत्रव्यवहार हुआ। फलतः इस वर्ष अप्रैलमें नेटाल-मंत्रिमंडलने मताधिकार-कानूनको वापस ले लिया। उसके स्थानपर यह विधेयक पेश किया गया :

जो लोग (यूरोपीय मूलके न होते हुए) किन्हीं ऐसे देशोंके निवासी या उनको पुरुष शाखाके वंशज हों, जिनमें अबतक संसदीय मताधिकारके आधार

  1. उल्लिखित सहपत्रों को यहाँ उद्धत नहीं किया जा रहा है। नेटाल-विधानसभा को दिये प्रार्थनापत्र के लिए देखिए खण्ड १, पृ॰ १३५–३९।
  2. देखिए खण्ड १, पृ॰ १४४–४६ और १४७–५०।
  3. देखिए खण्ड १ पृ॰ ११२–२७ जहाँ गांधीजी कहते है कि अर्जी पर दस हजार सहियाँ हुई है।