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सम्पूर्ण गांधी वाङ् मय

पहली अवधि समाप्त करने के बाद नया इकरार करने को राजी न हो तो उसे अनिवार्य रूपसे भारत लौटना होगा। बेशक, उसका वापसी किराया मालिकके जिम्मे रहेगा। और जो इस शर्तको न पाले उसे तीन पौंड वार्षिक व्यक्ति-कर देना पड़ेगा, जो कि गिरमिटकी अवधिको एक वर्षकी कमाईका लगभग आधा होगा। यह विधेयक जिस समय स्वीकार किया गया था उस समय इसे एक मतसे अन्यायपूर्ण घोषित किया गया था। नेटालके पत्रोंतक को सन्देह था कि इसे सम्राज्ञीकी अनुमति प्राप्त होगी या नहीं। इतने पर भी वह ८ अगस्तसे अमलमें आ गया है।

हमारा सबसे अच्छा और शायद एकमात्र आयुध प्रचार ही है। हमसे हमदर्दी रखनेवालों में एकका कथन है कि "हमारी शिकायतें इतनी गम्भीर हैं कि उनका निवारण करने के लिए उन्हें जान लेना ही काफी है।" अब हम आपसे और आपके समकालीन पत्रोंसे उपनिवेश-मंत्रीके इस कार्यपर अपना मत व्यक्त करनेकी विनती करते हैं। हम समझते रहे हैं कि उपनिवेश-मंत्रालय हमारा विश्वसनीय आश्रय-स्थल है। हो सकता है कि हमारा भ्रम अभी दूर होना बाकी हो। परन्तु हमने प्रार्थना की है कि अगर विधेयकका निषेध न किया जा सके तो सरकारकी ओरसे और सरकारकी मददसे नेटालको मजदूर भेजना स्थगित कर दिया जाये।[१] जनताने इस प्रार्थनाका समर्थन किया था। क्या हम भरोसा रखें कि हमारी उस प्रार्थनाको स्वीकार कराने के नये प्रयत्नोंमें जनता नयी स्फूर्तिसे हमारा समर्थन करेगी?

आपका,

मो॰ क॰ गांधी

 

[अंग्रेजीसे]

टाइम्स ऑफ इंडिया, २०-१०-१८९६

८. पत्र : गोपाल कृष्ण गोखलेको

बकिंघम होटल
मद्रास
१८ अक्तूबर, १८९६

प्रोफेसर गोखले
पूना
श्रीमन्,

मैंने दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंके प्रश्नसे सम्बन्धित कुछ और कागजात श्री सोहोनीके पास छोड़ देनेका वचन दिया था। खेद है कि मैं उस बातको बिलकुल भूल गया। अब उन्हें बुकपोस्टसे भेज रहा हूँ। आशा करता हूँ कि वे कुछ काम आयेंगे।

  1. देखिए खण्ड १, पृ॰ २३८–३९।