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खिलाफत और अहिंसा


सिद्धान्तके प्रति सच्चा रहनेके बजाये दूसरे सिद्धान्तोंके साथ समझौता कर लेगा? निःसन्देह हिन्दू-मुस्लिम मंत्री एक बेशकीमत चीज है लेकिन क्या इसकी खातिर वह अपने सिद्धान्तके एक सर्वथा विरोधी सिद्धान्त — खिलाफतके सिद्धान्त के साथ समझौता कर लेगा?

लेखककी इस उत्कट अपीलको देखते हुए, मुझे खिलाफतके प्रश्नके सम्बन्धमें अपना दृष्टिकोण फिरसे स्पष्ट कर देना चाहिए। मैं अहिंसाके सिद्धान्तकी पैरवी करता हूँ। यही मेरे समूचे जीवनका सिद्धान्त रहा है। और अब यदि मैं दूसरे किसी विचारसे, चाहे वह हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करनेके लिए ही क्यों न हो, अहिंसा के इस सिद्धान्तका आंशिक त्याग करके कोई ऐसा समझौता करता हूँ तो मैं अपने समूचे जीवनको झुठला दूंगा। मैंने हिन्दू-मुस्लिम एकताका काम अपने हाथमें तभी लिया जब मैंने परख लिया कि मुसलमानोंकी माँगें हर दृष्टिसे उचित हैं। मेरे लिए तो वह जीवनका एक महान् क्षण था। मैंने महसूस किया कि अगर मैं अपने मुसलमान देशवासियोंकी इस संकटकी घड़ीमें उनके प्रति अपनी वफादारी सिद्ध कर दूँ तो दोनों सम्प्रदायोंमें चिरस्थायी मैत्री स्थापित कर सकता हूँ। जो भी हो, मुझे यही लगा कि ऐसा प्रयत्न किया जाना चाहिए। दोनों सम्प्रदायोंके बीच सच्ची मित्रता के बिना मैं स्वतन्त्र भारतकी स्थापनाकी सम्भावनाकी कल्पनातक नहीं कर पाता।

पर श्री जकरिया कहते हैं कि खिलाफतकी बुनियाद जोर-जबरदस्तीपर है। खिलाफत इस संसारमें इस्लामका प्रतिनिधित्व करती है, और वह तलवारके बलपर भी इस्लामकी रक्षा करनेके लिए वचन बद्ध है। और मैं अहिंसामें विश्वास करते हुए किसी भी ऐसी संस्थाको बनाये रखनेके लिए कैसे संघर्ष कर सकता हूँ जो अपनी रक्षाके लिए भौतिक बलका प्रयोग करनेके लिए स्वतन्त्र है?

श्री जकरियाकी खिलाफतकी परिभाषा बिलकुल सही है। पर अहिंसाको मानने-वालोंका क्या कर्त्तव्य है, इस मामलेमें उनका निष्कर्ष गलत है। अहिंसाको माननेवाला किसी भी चीजकी रक्षा करनेके लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपमें हिंसा या भौतिक बलका प्रयोग न करनेके लिए वचनबद्ध है, लेकिन अहिंसाका समर्थन न करनेवाले व्यक्तियों या संस्थाओंकी सहायता करनेकी तो उसे कोई मनाही नहीं है। यदि बात इसकी उलटी होती तो, उदाहरणके तौरपर, मुझे भारतको स्वराज्य प्राप्त करनेमें सहायता नहीं देनी चाहिए क्यों कि मैं जानता हूँ कि स्वराज्यके बाद बननेवाली भारतीय संसद निश्चय ही कुछ सेना और पुलिसकी शक्ति तो रखेगी ही; या अगर घरेलू किस्मकी मिसाल ली जाये तो अहिंसा में विश्वास न रखनेवाले अपने पुत्रको मुझे न्याय हासिल करनेमें सहायता नहीं देनी चाहिए।

यदि श्री जकरियाकी बात ठीक मान ली जाये तो अहिंसामें विश्वास करनेवाला व्यक्ति कोई भी व्यापार-धन्धा नहीं कर सकेगा। और ऐसे आदमियोंकी भी कमी नहीं जो पूर्ण अहिंसाका मतलब सभी काम-धन्धे बिलकुल बन्द कर देना समझते हैं।

पर मेरा अहिंसाका सिद्धान्त ऐसा नहीं है। अहिंसावादी होने के नाते मेरा अपना कर्त्तव्य यही है कि मैं स्वयं हिंसासे बिलकुल दूर रहूँ और भगवान्‌के बनाये जितने भी