पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/४१६

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। 4 " N " ३८४ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय दक्षिण आफ्रिकाके कामके सम्बन्धमें मैं भारतके लगभग सभी जाने-माने नेताओंसे मिला। जस्टिस रानडेका मुझपर रोब गालिब हो गया था। उनकी उपस्थितिमें मुझे बात करनेका साहस नहीं होता था। बदरुद्दीन तैयबजीने मुझे पुत्रके समान समझा और मुझे रानडे और फीरोजशाहके कहनेपर चलनेकी सलाह दी। फीरोजशाह एक प्रकारसे मेरे संरक्षक बन गये। उनकी इच्छा मेरे लिए ब्रह्मवाक्य थी। “तुम्हें २६ सितम्बरको एक सार्वजनिक सभामें भाषण देना है और तुम्हें वहाँ ठीक समयपर पहुँच जाना चाहिए।" मैने आज्ञा-पालन किया। २५ तारीखकी शामको मुझे उनसे मिलना था। में मिलने गया। 'तुमने अपना भाषण लिख डाला? - उन्होंने पूछा। जी नहीं। इस तरह नहीं चलेगा, युवक । क्या आज रातको लिख सकते हो? -- मुंशी, तुम श्री गांधीके पास जाकर भाषणको पाण्डुलिपि ले आना। रातों-रात ही यह छप जाये और उसकी एक प्रति मुझे भेज दी जाये।" मेरी ओर मुड़कर उन्होंने आगे कहा: 'गांधी, बहुत लम्बा भाषण न लिखना। तुम नहीं जानते बम्बईके श्रोता बहुत लम्बा भाषण पसन्द नहीं करते।" मैंने सिर झुका दिया। बम्बई-केसरीने मुझे आदेशका पालन करना सिखाया। उन्होंने मुझे अपना शिष्य नहीं बनाया। उन्होंने इसके लिए कोशिश भी नहीं की। उसके बाद मैं पूना गया। मैं वहाँ बिलकुल अजनबी था। मेरे मेजबान मुझे पहले श्री तिलकके पास ले गये। जब मैं उनसे मिला तो वे अपने सहयोगियोंसे घिरे हुए थे। उन्होंने मेरी बात सुनी और कहा “हमें तुम्हारे लिए एक सभा आयोजित करनी होगी। लेकिन शायद तुम्हें पता नहीं कि दुर्भाग्यवश यहाँ दो दल हैं। तुम सभापतित्व करने के लिए, कहींसे कोई निर्दलीय व्यक्ति जुटाओ। तुम डा० भाण्डारकरसे मिलोगे? मैंने बात मान ली और वापस आ गया। मेरे मनमें श्री तिलककी बहुत स्पष्ट स्मृति नहीं है। बस इतना ही याद है कि उन्होंने अपने प्रेम और अपनी बेतकल्लुफीसे मेरी घबराहट दूर कर दी थी। वहाँसे, मुझे ऐसा याद है, मैं गोखलेके पास गया और फिर डा० भाण्डारकरके पास। डा० भाण्डारकरने मेरे अभिवादनका उत्तर कुछ उस भावसे दिया जैसा कि कोई अध्यापक अपने किसी विद्यार्थीको देता है। तुम एक ईमानदार और जोशीले युवक लगते हो। दोपहरकी ऐसी गरमीमें मुझसे मिलने बिरला ही आता। आजकल मैं सार्वजनिक सभाओंमें कभी नहीं जाता किन्तु तुमने एक ऐसी दयनीय परिस्थिति सामने रखी है कि मैं अपना नियम-भंग कर दूंगा।" श्रद्धेय डाक्टर और उनके बुद्धिमत्तापूर्ण चेहरेके लिए मेरे मनमें श्रद्धा पैदा हो गई थी। किन्तु अपने हृदयके छोटेसे सिंहासनपर मैं उनको नहीं बैठा सका। वह अभीतक खाली था। मैं कई व्यक्तियोंको अनुकरणीय मानता था, पर मुझे अपने आदेशोंपर चलानेवाला हृदय सम्राट् अभीतक नहीं मिल सका था। 20 १. देखिए आत्मकथा, भाग २ । Gandhi Heritage Heritage Portal