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काठियावाड़के राजा-महाराजाओंसे

हमारे शास्त्र यह सिखाते हैं कि अपने प्राणोंकी आहुति देकर भी अन्यायका सामना करना चाहिए। मेरे पूज्य पिताजीने अपने चरित्र द्वारा मुझे यही शिक्षा दी है। लोग साहस-सम्पन्न हों तो इससे देशकी हानि नहीं होगी।

किन्तु मैंने यह पत्र स्वराज्यके विषयमें लिखनेके उद्देश्यसे शुरू नहीं किया है। मेरे स्वराज्य विषयक विचार आपकी दृष्टिसे ओझल न रह जायें इसलिए ऊपरके वाक्य लिख दिये हैं।

आपके राज्योंके विषयमें अनेक लेख मेरे पास आये हैं। कितनी ही शिकायतें मैंने जबानी भी सुनी हैं। परन्तु अबतक मैंने उनमें से कुछ भी प्रकाशित करना उचित न समझा। मैं यही आशा लगाये रहा कि अन्तमें सब ठीक हो जायेगा, और अब भी मेरा यही खयाल है। बड़े साम्राज्यकी स्वेच्छाचारिता जहाँ एक बार नष्ट हुई कि छोटे-छोटे राज्योंकी मनमानी भी उसके साथ बन्द हो जायेगी। आत्म-शुद्धि एक ऐसी वस्तु है जिसकी जड़ जमनेमें कुछ समय लगता है। परन्तु जड़ जम जानेपर उसके फैलनेमें विलम्ब नहीं लगता।

पर, अब तो मैं सुनता हूँ कि कोई-कोई राज्य चरखेका उपहास करता है, कोई उसे एक रोग समझकर मिटानेकी इच्छा रखता है, कोई 'स्वदेशी' जैसे शाश्वत आन्दोलनको रोकनेके लिए लोगोंको अनुचित रीतिसे दबाता है, कोई खादी पहननेके खिलाफ उठ खड़ा होता है और खादीकी टोपी पहननेको 'जुर्म' मानता है। इन बातोंपर विश्वास करते हुए मुझे क्षोभ होता है। परन्तु मेरे पास इसके इतने प्रमाण मौजूद हैं कि ये सारी बातें झूठ नहीं हो सकतीं।

काठियावाड़की धरती ऐसी [उपजाऊ] है कि वहाँके किसी भी आदमीको बाहर जानेकी जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। कोई व्यक्ति बड़ा व्यापार शुरू करनेकी हिम्मत करे, तो वह स्तुत्य है। किन्तु ऐसे सैकड़ों बल्कि हजारों काठियावाड़ी मेरे सम्पर्कमें आये हैं जिन्हें केवल आजीविकाके अभावमें काठियावाड़ छोड़ना पड़ा है। यह बात मुझे सालती है और चाहता हूँ कि आपको भी साले। काठियावाड़के मजबूत काठीवाले खूबसूरत ग्रामीणोंके घरोंमें पहले जो तेज दिखाई देता था वह तेज मुझे अपनी इस बारकी यात्रामें दिखाई नहीं दिया। मुझे संवत् ३५ के[१] अकालके पहले गाँवोंमें दूध-घीकी बहुलता देखनेकी याद है। पलीसे घी परसना तो कंजूसी मानी जाती थी। मुझे बचपनमें काठियावाड़ी ऊँची-पूरी देहाती बहनोंके हाथों चमचम करते हुए कटोरोंमें गाढ़ा मठा पीनेका स्मरण है।

आज तो मठेके नाम सफेद पानी दिखता है; घीकी कुप्पियाँ अब नहीं दिखतीं; चम्मच दो चम्मच घी दिख जाये तो गनीमत है। समृद्धिके समाप्त होनेसे लोग दीनताका अनुभव करने लगे हैं और प्रान्त छोड़कर बाहर भागने लगे हैं।

यह निश्चय जानिए कि यदि राजा-महाराजा मदद करें तो चरखों और करघोंके द्वारा काठियावाड़ में पहलेसे भी अधिक जान आ जाये। काठियावाड़की आबादी छब्बीस लाख गिनी जाती है। वहाँ पाँच लाख चरखे आसानीसे चल सकते हैं। इससे प्रति

२०–३२
  1. विक्रम संवत् १९३५ अर्थात् ईसवी सन् १८७९-८०।