पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/५४०

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५०८ सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय अपनी माह्वारी मजदूरीके दसवें भागके हिसाबसे दिया था। सात हजार मजदूर सदस्य बन चुके हैं। इसी तरह बम्बईके मजदूरोंने भी बिना माँगे चन्दा भेजा है। हालांकि उन्होंने अहमदाबादके मजदूरोंकी तरह किसी निश्चित हिसाबसे और उतना ज्यादा नहीं दिया है। मजदूरोंका यह योगदान बतलाता है कि हवाका रुख किस तरफ है। मजदूर जितने ही अधिक संगठित होते जायेंगे और अपने हितके साथ-साथ देशके हितोंका भी खयाल करते जायेंगे, उतना ही अपनी मेहनतसे तैयार होनेवाली चीजोंकी कीमतें निर्धारित करानेके लिए उनका संघर्ष तीव्रतर होता जायेगा। तब फिर मिल-मालिकों द्वारा मजदूरों और उपभोक्ताओंके हितोंकी परवाह किये बिना अपने भागीदारोंका लाभांश बढ़ानेकी गरजसे बेहिसाब कीमतें वसूल करनेका सवाल ही नहीं रहेगा। एक ऐसा वक्त जरूर आयेगा और वह जितनी जल्दी आये उतना अच्छा होगा -जब भागीदारोंके लाभांश, मजदूरोंकी मजूरी और उपभोक्ताओं द्वारा अदा की जानेवाली कीमतोंके बीच समुचित सामंजस्य स्थापित हो जायेगा। अनुशासनहीनता मैंने दुबारा जो दौरा शुरू किया है उसका तजुर्बा पहलेके मुकाबले अच्छा नहीं रहा है। मैंने तो सोचा था कि मैं अनुशासनके बारेमें इतना लिख और बोल चुका हूँ और चूंकि हम अनुशासनके एक दौरसे गुजर ही चुके हैं, इसलिए अब इस दौरे में मुझे काफी अनुशासित और सन्तुलित किस्मके प्रदर्शन देखनेको मिलेंगे। लेकिन मुझे यह देखकर ताज्जुब ही हुआ कि स्टेशनोंपर लोगोंका हुजूम ठेला-ठेली और शोर-गुल करते हुए मिलता है। आगरा और टूंडलामें भीड़ उत्तेजित थी और लोग किसीकी बात सुननेको तैयार नहीं थे। टूंडलामें तो भीड़के कारण स्टेशनसे बाहर निकलना तक कठिन हो गया था। जाहिर है कि उनसे जो भी कुछ कहा जा रहा था वह उनको सुनाई नहीं देता था। उनसे कोई चुप रहनेको कहता तो वे जोर-जोरसे चीखने लगते थे। और मुझे जैसे-तैसे जब भोजन-कक्षमें पहुँचाया गया तो भीड़ वहाँ भी घिर आई । अन्दर झांकनेके लिए उत्सुक लोगोंने दरवाजेके काँच तोड़-फोड़ डाले। लोग तबतक सन्तुष्ट नहीं हुए जबतक मैं उन्हें लेकर स्टेशनसे बाहर नहीं निकल आया। लेकिन मेरे भाषणके बाद काफी फर्क पड़ा। लोग हिदायतोंपर कान देने लगे। शोर-गुल भी पहलेसे कम हो गया। फिर लोग मेरे डिब्बेकी ओर बेतहाशा नहीं भागे और हम लोगोंको गुजरनेके लिए रास्ता भी दे दिया। मैं ढूंडलासे कई बार गुजर चुका हूँ, पर मैंने पहले कभी इतनी भीड़ वहाँ नहीं देखी थी। पूछताछ करनेपर मुझे पता चला कि इस बार आसपासके गाँवोंके लोग सिर्फ दर्शनोंके लिए सिमट आये थे। यह 'दर्शन' तो एक परेशानी बन गई है, और इसमें काफी कीमती समय बेकार चला जाता है। इससे मुझे सचमुच बड़ी परेशानी होती है और यात्राके दौरान अपने लेखन-कार्य के लिए मुझे जिस शान्तिकी जरूरत है वह भी नहीं मिल पाती। इस सारी कठिनाईकी जड़में यही बात है कि हम पहलेसे कोई योजना नहीं बनाते और हम अच्छी तरहसे संगठित भी नहीं हैं। कार्यकर्ताओंको या तो इन प्रदर्शनोंको सर्वथा व्यवस्थित ढंगसे संगठित करना चाहिए या फिर इनका विचार ही त्याग देना चाहिए। गनीमत समझिए कि Gandhi Heritage Portal