पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 20.pdf/५६०

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२५९. अस्पृश्यता और राष्ट्रीयता अंकलेश्वरसे एक सज्जनने बहुत लम्बा पत्र लिखा है। उनका कहना है कि राष्ट्रीय आन्दोलनमें अस्पृश्यताको दाखिल करके मैंने हिन्दुस्तानको भारी नुकसान पहुँचाया है। मैंने उस सवालकी चर्चा करने में अति की है और व्यर्थ ही हम लोगोंमें अनबनका कारण उत्पन्न कर दिया है। इस भाईके पत्रमें लगाये गये अन्य आक्षेपोंका कोई हिसाब नहीं है। उनका मैं यहाँ उत्तर नहीं दे रहा हूँ, [ मुझे उम्मीद है ] इसके लिए वे मुझे क्षमा करेंगे। कुछ-एक सामाजिक प्रश्न इतने व्यापक होते हैं कि उन्हें राजनैतिक बनाये बिना काम ही नहीं चल सकता। हिन्दू-मुस्लिम एकताके प्रश्नको अगर सामाजिक मानकर निकाल दें तो हमारी गाड़ी पहली मंजिलपर ही अटक जायेगी। दक्षिणमें ब्राह्मण और ब्राह्मणेतर प्रश्न इतना उग्र हो गया है कि जो राजनैतिक पक्ष उसे छोड़ देगा वही मृत्युको प्राप्त होगा। अमुक प्रश्नको राष्ट्रीय आन्दोलनमें शामिल किया जाना चाहिए अथवा नहीं, इसका निर्णय करना आसान है। जिसका निर्णय किये बिना हमारा काम रुक जाये उसका निर्णय करना ही चाहिए। मेरा यह निश्चित मत है कि यदि मैंने अस्पृश्यताके प्रश्नको न उठाया होता तो हमारा आन्दोलन आगे बढ़ ही नहीं सकता था। हम घोर अज्ञानवश जिन लोगोंको अस्पृश्य मानकर अपमानित कर रहे हैं उन छ: करोड़ लोगोंको छोड़कर हम स्वर्गके विमानमें कदापि नहीं बैठ सकते। वे लोग भूमिपर होने के कारण उस विमानको पकड़े रहेंगे और वह उड़ान नहीं भर सकेगा। विमानको पकड़कर, जैसे-तैसे लटके रहकर भी वे उड़ सकते हैं -- ऐसा अगर मुझे लगता तो मैं इस प्रश्नको न उठाता। पत्र-लेखकके पत्रसे मुझे ऐसा लगता है कि वह वर्तमान राज्यतन्त्रसे परिचित ही नहीं है। इस राज्य-व्यवस्थाका महल हमारी दुर्बलताओंकी नींवपर ही उठाया गया है। आज हिन्दू-मुसलमानका प्रश्न, तो कल ब्राह्मण-ब्राह्मणेतरका प्रश्न, और फिर अस्पृश्यता तथा राजा और प्रजाका प्रश्न, धनवान और मजदूरका प्रश्न, हमारे मद्यपान आदिके शौकसे -- इस राज्य-व्यवस्थाने हमारी इन दुर्बलताओंका हमेशा लाभ उठाया है, इसीसे अपनी लड़ाईको हमने आत्म-शुद्धिकी लड़ाई माना है । मैंने अस्पृश्यताको सबसे बड़ा कलंक माना है; क्योंकि हिन्दू-संसारने इस वर्गपर डायरशाही चलाई है। मैं शास्त्रजालमें पड़कर भरमनेवाला व्यक्ति नहीं हूँ। मेरी आँखोंने जो देखा है उसे मैं ऐसे ही दरगुजर नहीं कर सकता। जहाँ भी देखता हूँ वहाँ मैं अन्त्यजोंको तिरस्कृत होते हुए देखता हूँ। एक पत्र-लेखक अभिमानके साथ लिखता है कि हिन्दू समाजने अन्त्यजोंका यदि सचमुच तिरस्कार किया होता तो अन्त्यज कभीके नष्ट हो गये होते। मुझे तो लगता है कि हमने ही उनका नाश नहीं किया क्योंकि उनसे हमें अपनी गन्दगी उठवानी थी। गुलामोंका नाश कौन करता है? जिसे भार उठवाना है, वह अपने जानवरका नाश नहीं करता। हमने अन्त्यजोंसे कितना भार उठवाया है और Gandhi Heritage Portal