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गांधी--तब और अब

क्यों न हो । अब मान लीजिए कि अराजकता फैलानेवाले जोर ही पकड़ लें, तो क्या उस सूरतमें मुझे अपने पदक फिरसे धारण करने चाहिए या अपने मित्रोंसे फिर पदकधारी बननेके लिए कहना चाहिए या वकीलोंको फिरसे वकालत शुरू करनेकी सलाह देनी चाहिए? क्या अराजकता फैलनेके भयसे मुझे डायरशाहीमें विश्वास करने-वाली एक बेईमान सरकारके साथ सहयोग करने लगना चाहिए? मैं जानता हूँ कि अराजकतामें निष्ठा एक आसुरी चीज है, लेकिन डायरशाही तो उससे भी बुरी है;क्योंकि वह संवैधानिक सत्ताकी नकाब चढ़ाये हुए अराजकता ही तो है । सत्ताके आदेश-पर व्यवस्थित ढंगसे की जानेवाली अराजकता उत्कट विश्वासके आधारपर पनपनेवाली अराजकतासे लाख गुना बुरी है। इस दूसरे प्रकारकी अराजकता भड़कनेपर ही मुझे जन-समुदायकी अराजकतासे अपने-आपको उसी तरह अलग रखना चाहिए जैसे कि मैं सरकार द्वारा की जानेवाली अराजकतासे अपने-आपको अलग रखता आया हूँ । मेरे तईं तो दोनों ही बुरी हैं, उनसे अलग रहना चाहिए। मैंने तो जलियाँवाला हत्याकाण्ड करानेवाले के खिलाफ भी प्रतिहिंसाकी कोई बात नहीं की। मैंने इससे ज्यादा तो कुछ नहीं कहा कि उन अपराधियोंमें से जो अभीतक पदासीन हों उनको नौकरीसे निकाल दिया जाये और जो पेन्शनें पा रहे हैं उनकी पेन्शनें बन्द कर दी जायें । महन्त नारायण-दासको पेन्शन देने या उनको पदासीन बनाये रखनेकी सलाह मैंने सिखोंको नहीं दी। हाँ, मैंने सिखोंको यह सलाह जरूर दी है कि हत्यायें करनेवालों को दण्ड न दें, ठीक उसी तरह जैसे कि मैंने हत्याकांड करनेवाले पंजाबके सरकारी अधिकारियोंके अपराध क्षमा कर देनेकी सलाह देशको दी है। अमृतसर और ननकाना दोनोंके बारेमें मेरा आचरण एक-सा रहा है। मैं बार-बार कह चुका हूँ कि सरकारके साथ मेरा बरताव उसी तरहका है जैसा कि अपने प्यारेसे-प्यारे रिश्तेदारके साथ होता है। राजनीतिक क्षेत्रमें असहयोग असलमें घरेलू क्षेत्रमें बरते जानेवाले असहयोगका ही सैद्धान्तिक विस्तार है। वकीलों इत्यादिके साथ मेरे सम्बन्धका हवाला देना शोभा नहीं देता। सच तो यह है कि कांग्रेस संगठनमें चन्द ही ऐसे पदाधिकारी वकील रह गये हैं जो अभी-तक वकालत करते हैं।

मैं अपनी इस रायपर कायम हूँ कि जहाँ-कहीं असहयोगियोंका बहुमत हो वहाँ किसी भी ऐसे व्यक्तिको पदाधिकारी नहीं बनाना चाहिए जो पूरा-पूरा असहयोगी न हो । कांग्रेस समितिने इस प्रस्तावको ठुकराया नहीं है। मुझे पता नहीं कि सूरतमें वकालत करनेवाले वकीलोंने मुझे कोई मानपत्र दिया था या नहीं। लेकिन यदि वे भी मुझे मानपत्र दें तो मैं उसे निस्संकोच स्वीकार कर लूंगा, अवश्य ही मुझे यह छूट रहे कि मैं उनको गलत रास्तेसे हटाकर सही रास्तेपर ला सकूँ । अली बन्धुओंके साथ मेरा जो सम्बन्ध है, उसे मैं अपनी खुश किस्मती समझता हूँ और मुझे उसपर नाज है। परन्तु दक्षिण आफ्रिकामें तो मुझे हत्यारों और चोरोंके साथ काम करना पड़ा था, वे कमसे-कम ऐसे लोग तो थे ही जो हत्या और चोरीके जुर्ममें जेलकी हवा खा चुके थे। हाँ, इतनी बात है कि उन्होंने अहिंसाका पालन उतने ही सम्मानप्रद ढंगसे किया था जितना कि एक सत्याग्रही करता है। मुझे तो तब और अबके गांधीमें कोई अन्तर दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय इसके कि आज गांधीकी दृष्टि सत्याग्रहके बारेमें अधिक