पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 21.pdf/१६

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दस

मुग्ध क्यों हैं। उन्होंने लिखा: “जैसे अपनी पत्नीके बारेमें अपनी भावनाका वर्णन करना मेरे लिए कठिन है, वैसे ही हिन्दू धर्म के बारेमें भी। मुझपर उसका जितना असर होता है, वैसा संसारकी किसी स्त्रीका नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कि उसमें दोष ही नहीं हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि मुझे दरअसल जितने दोष उसमें दिखाई देते हैं, उससे कहीं अधिक दोष उसमें होंगे। लेकिन मुझे उसके साथ एक अटूट बन्धनका अनुभव होता है। मेरी यही भावना हिन्दू धर्मके बारेमें भी है, भले ही उसमें चाहे जितने दोष हों, उसकी चाहे जैसी सीमाएँ हों । हिन्दू धर्मकी दो ही पुस्तकें ऐसी हैं जिनके जाननेका मैं दावा कर सकता हूँ । वे हैं गीता और तुलसीकृत 'रामायण' । इनका संगीत मुझको जितना आह्लादित करता है उतनी आह्लादित कोई और चीज नहीं करती (पृष्ठ २६० ) ।

वर्षं समाप्त होते-होते तक उन्होंने देख लिया कि आत्मशुद्धिकी दृष्टिसे प्रस्तुत किये गये रचनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से उन्होंने स्वराज्यका जो सन्देश दिया था, उसे लोगोंने सार्थक नहीं किया। उन्होंने देखा कि लोग बातको सुन तो लेते हैं, ऊपरी उत्साह भी दिखा देते हैं, किन्तु उसे हृदय में अंकित नहीं करते, आचरण में नहीं उतारते। उन्होंने इसे अपनी ही विफलता माना और कहा : "क्या मुझे पूर्ण विनयके साथ अपने सृजनहारके सामने घुटने टेककर यह प्रार्थना नहीं करनी चाहिए कि वह मेरे इस अनुपयोगी शरीरको समाप्त करके उसे सेवाके किसी अधिक उपयुक्त साधना रूप दे ?" (पृष्ठ ४८० ) । किन्तु निराशापूर्ण यह मानसिक स्थिति दीर्घकालतक नहीं टिकी । वर्षके अन्त तक देश में गांधीजीने जिस संजीवनीके संचारकी आशा की थी, उसे सफल न होते देखकर उन्हें अवश्य दुःख हुआ । किन्तु उनकी स्थितप्रज्ञता इस उद्वेगपर जल्दी ही हावी हो गई। उन्होंने एक वर्षकी जो अवधि स्वराज्य-प्राप्तिके लिए दी थी, उसे सफल बनाने के लिए आवश्यक था कि जनता आध्यात्मिकताका महत्त्व समझती और आत्मशुद्धिको राजनीतिक स्वतन्त्रताका अनिवार्य साधन मानती । गांधीजीने लोगों के सामने जो शर्तें रखी थीं, वे सरल थीं और उन्होंने कहा भी था 'इन शर्तोंका पालन करो और स्वराज्य ले लो" (पृष्ठ ५८५-८६) । किन्तु वह सम्भव नहीं हुआ और गांधीजी स्वयं अनतिकाल अवसन्न रहकर फिर एक सच्चे साधककी प्रसन्न मनःस्थिति में आ गये । वे ईश्वर-निष्ठ होने के नाते निराशावादी हो ही नहीं सकते थे । उन्होंने कहा : "यदि हिन्दुस्तान स्वराज्य प्राप्त नहीं करता, तो मैं आत्महत्या क्यों करूँ?. . . यदि हिन्दुस्तानको गरज है, तो वह उसकी कीमत चुकाये और स्वराज्य ले" (पृष्ठ ३४५) ।