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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सब देख रहा हूँ और हाथोंसे तथा मुंहसे मारपीट रोकनेके लिए प्रयत्न भी कर रहा हूँ। लेकिन नक्कारेमें तूतीकी आवाज सुनता कौन है ! मान लो कि इसी बीच मारपीट बढ़ गई, लोग दल बाँधकर लड़ने लगे और खूनकी नदी बह चली। ये सब बातें बिना किसी इरादेके हो सकती हैं। अमृतसर में मेरा खयाल है ऐसा ही हुआ था। मैं यह नहीं मानता कि किसीने पहलेसे ही उस बेकसूर बैंक मैनेजरका खून करनेका इरादा किया होगा। लेकिन उस समय लोगोंका खून उबल रहा था सो किसी शैतानने इस परिस्थितिका लाभ उठा लिया।

इसीलिए मैं समझता हूँ कि हमारे इस शान्तिमय युद्ध में जयघोषोंके लिए कोई स्थान नहीं है; और अगर है भी तो वह मुनासिब ढंगसे और जरूरत के वक्तपर, और बहुत ही कम संख्या में।

मालूम होता है कि कलकत्ते में स्वयं-सेवकोंको सभाके नियम पालने की तालीम नहीं दी गई क्योंकि मैंने देखा कि अगर लोगोंको शुरूसे ही हिदायतें मिल जायें तो वे उसके अनुसार चल सकते हैं। गला फाड़-फाड़ कर चिल्लानेसे ही प्रेम दिखाई दे सकता हो, सो बात नहीं है, बल्कि चुप रहना भी शुद्ध प्रेमका -- अदबका चिह्न है। यह बात अगर लोगोंको समझाई जाये तो जरूर ही वे इसका मर्म समझ सकते हैं। मैंने दो-एक सभाओं में ऐसा करके भी देखा है। भीड़को पार करते हुए मेरे पैर कुचल गये और जयघोषसे मैं हैरान भी हुआ। एक जगह तो मुझे अपने स्थानतक पहुँचने में २० मिनट लग गये। इन दोनों जगहों में अपने भाषणका चौथाई हिस्सा तो मैंने केवल सभामें चुप रहने -- शान्ति बनाये रखने -- और नेताओंके लिए रास्ता देनेका उपदेश करने में ही लगाया। लेकिन दोनों ही जगह इसका नतीजा यह निकला कि लौटते वक्त हमें रास्ता मिल गया। शोर भी न मचा और जबतक हम वहाँसे चले न गये तबतक लोग अपनी जगह से उठेतक नहीं। इस तरह जहाँ भीड़को पार करनेमें मुझे बीस मिनट लगे थे, वहाँ लौटने में सिर्फ एक ही मिनट लगा।

इन बातोंसे मैं देखता हूँ कि अगर लोगोंको शुरूसे ही ठीक तौरपर समझा दिया जाये तो जरूर ही वे उसे मानेंगे और उसपर अमल करेंगे। मुझे यह विश्वास है कि आम तौरपर लोग शान्तिके सबकको समझते हैं और उसको अमलमें लानेका इरादा भी रखते हैं।

अब मैं अपने ऊपरवाले उदाहरणकी उलटी स्थितिका अनुमान करता हूँ। मान लीजिए कि सभामें सब लोग चुपचाप बैठे हैं, सबका ध्यान मुख्य नेताकी तरफ है। ऐसी शान्त सभा में अगर कुछ लोगों में कहीं लड़ाई-झगड़ा खड़ा हो जाये, और फिर भी अगर सब लोग चुपचाप ही बैठे रहें तो नतीजा यह होगा कि मुख्य नेताकी आवाज सबके कानों तक पहुँचेगी। इतना ही नहीं, वह उन लड़नेवालोंके पास जाकर उन्हें शान्त कर सकेगा। ऐसा न हो पाये तो भी कमसे-कम अनजान में झगड़ा नहीं फैलेगा और शान्ति भंगका दोष भी हमारे सिर न आने पायेगा। फौजमें ऐसा ही होता है। सब सिपाही अपनी-अपनी जगहको सँभाले रहते हैं। बिना हुक्मके वे अपनी

१. अप्रैल १९१९ में।