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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

राक्षसी राज्यके स्कूलोंमें पढ़ना पाप है। सोलह सालसे कमके लड़कोंके लिए तो यह बात थी ही नहीं, और मेरी धारणा है कि सोलह सालसे ऊपरकी उम्र के युवकमें निर्णयशक्ति जागृत हो जाती है।

एक और भी खयाल मेरे दिमागमें चक्कर मारा करता है। क्या आजकल माँ-बाप यह समझते हैं कि उनका धर्म क्या है? भला जहाँ माँ-बाप खुद ही पतित हों वहाँ लड़कोंका धर्म क्या होगा? जहाँ खुद माँ-बाप ही व्यभिचारी हों और दुर्व्यसनी हों तो भला उनके जवान लड़के-लड़कियोंको क्या करना चाहिए? गुलामोंके लड़के किस रास्तेपर चलें?

ऐसे विषयोंमें मर्यादा-शास्त्रका एकांगी अर्थ करनेसे सिवा विषम परिणामके और क्या हाथ आ सकता है? घूसखोर माँ-बापकी औलादको घूसके पैसेपर अपना निर्वाह करना चाहिए या उसका त्याग? मान लीजिए कि हिन्दू माँ-बाप अपना धर्म छोड़ दें तो क्या उनके लड़कोंको भी अपना धर्म छोड़ देना चाहिए?

इस जमाने में हमें जिस प्रकार राजभक्तिकी एक सीमा बाँधनी पड़ती है उसी प्रकार पितृभक्तिकी भी हद बाँध देनेपर ही काम चल सकता है।

जहाँ राजा व्यभिचारी हो, जहाँ राजा प्रजाको पीड़ित करता हो, जहाँ वह प्रजाके धन-सम्पत्तिपर तरह-तरह के भोगविलास करता हो, रक्षकके गुणको छोड़कर भक्षक हो जाता हो, वहाँ राजभक्ति अगर पाप न मानी जाये तो फिर पुण्य ही पाप हो जायेगा। राजभक्ति तो रामभक्तिको ही कह सकते हैं, रावण भक्तिको कदापि नहीं। हाँ, दशरथ वन जानेकी आज्ञा दें और राम खुशीसे जायें, यह तो सुसंगत है, परन्तु हिरण्यकशिपु अपनी गद्दी दे और प्रह्लाद उसपर बैठ जाये तो धर्मका लोप ही होगा।

बापके कुएँ में तैरना तो चाहिए, पर डूब मरना तो न चाहिए।

इस संग्राममें युवकोंको स्वच्छन्दताका पाठ नहीं पढ़ाया गया है। जिन युवकोंको मर्यादाका ज्ञान है, जो दुःखोंको सहन कर सकते हैं सिर्फ उन्हींको यह कहा गया था कि इस ज्ञानके मिलते हुए भी तुम सरकारी स्कूल-कालेज छोड़ दो। ऐसे लड़के भी बहुत हैं जो अपने माँ-बापको खुश रखनेके लिए ही सरकारी मदरसोंमें पड़े हुए हैं। अपने माँ-बापकी इच्छाको अमान्य करके निकलनेवालोंकी संख्या तो कम ही है और उनमें भी ऐसे लड़कोंकी संख्या तो और भी कम है जो बादमें स्वेच्छाचारी हो गये हैं।

अपनी अन्तरात्मा के नामपर स्वच्छन्दताकी उपासना करनेवाले वीरोंकी इस दुनियामें कोई कमी नहीं है। वे तो धर्मको बट्टा लगायेंगे ही। परन्तु इससे क्या हमें अन्तरात्माका नाम लेते हुए डरना चाहिए? मुझे इस बातमें जरा भी सन्देह नहीं है कि बालकोंको चरखा सौंपकर मैंने जनताकी बड़ी भारी सेवा की है। इसे तो मैं एक नित्य कर्त्तव्य मानता हूँ। हमने तो बालकोंको केवल बौद्धिक शिक्षण देकर उनके साथ अत्याचार किया है। शरीरके लालन-पालनमें ही हमारा बहुत-सा समय जाता है। तब उसके पोषणके साधनोंकी तालीम भी हमें देनी ही चाहिए। इस तालीमकी अवहेलना करके हमने बड़ा पाप किया है। देश अब उसी हालत में सुखी होगा जब हम फिरसे वैसी शिक्षा देने लगेंगे। औद्योगिक शिक्षा देना हमारा कर्त्तव्य है। और चरखेके द्वारा यह शिक्षा देनेसे हमारे कई काम बन जायेंगे।