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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए बना लिया है कि मैं देखता हूँ उसकी रक्षाके द्वारा मैं पूर्ण गो-रक्षा कर सकता हूँ। मैं अपने मुसलमान भाइयोंसे यह नहीं कहता कि मेरी सेवाओंका खयाल करके वे गोरक्षा करें। लेकिन मैं सर्वशक्तिमान् ईश्वरसे रोज ही यह प्रार्थना करता हूँ कि मैं जिस पक्षको सर्वथा न्याय-सम्मत समझता हूँ उसके लिए मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह उस सर्वशक्तिमानको इतना अच्छा लगे कि वह मुसलमानोंका हृदय परिवर्तित कर दे, और अपने हिन्दू भाइयोंके प्रति उनमें इतनी दया भर दे कि जिस पशुको हिन्दू अपने प्राणोंकी तरह प्यारा मानते हैं, उसकी रक्षाकी ओर वे स्वयं ही प्रवृत्त हो जायें।

जैसे अपनी पत्नीके बारेमें अपनी भावनाका वर्णन करना मेरे लिए कठिन है वैसे ही हिन्दूधर्मके बारेमें भी। उसका मुझपर जितना असर होता है, उतना संसारकी और किसी स्त्रीका नहीं हो सकता। ऐसा नहीं कि उसमें दोष हैं ही नहीं। मैं तो कहूँगा, मुझे उसमें जितने दोष दिखाई देते हैं, दरअसल उससे भी अधिक दोष उसमें होंगे। लेकिन मुझे उसके साथ एक अटूट बन्धनका अनुभव होता है। मेरी यही भावना हिन्दू धर्मके बारेमें भी है, भले ही उसमें जो दोष हों, उसकी जो सीमाएँ हों। हिन्दू धर्मकी दो ही पुस्तकें हैं, जिन्हें जाननेका दावा में कर सकता हूँ। वे हैं -- 'गीता' और तुलसीकृत 'रामायण'। इन दोनोंका संगीत मेरे मनको जितना आह्लादित करता है उतनी और कोई चीज नहीं करती। एक बार जब मुझे लगा कि मेरी अन्तिम घड़ी आ पहुँची है, तब मुझे 'गीता' से ही सांत्वना प्राप्त हुई थी। आजकल हिन्दुओंके बड़े-बड़े मन्दिरोंमें जो बुराई चल रही है उसे मैं जानता हूँ। उनमें ऐसे दोष हैं, जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता, फिर भी मुझे उनसे प्रेम है। उनमें मैं एक विशेष आकर्षणका अनुभव करता हूँ -- ऐसा आकर्षण जैसे आकर्षणका अनुभव मैं और किसी चीजके प्रति नहीं करता। मैं आदिसे अन्ततक एक सुधारक हूँ। लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं उत्साहातिरेकमें हिन्दूधर्मकी असली चीजोंको भी छोड़ दूं। मैंने कहा है, मैं मूर्ति-पूजामें अविश्वास नहीं करता। किसी मूर्तिको देखकर मेरे मनमें श्रद्धाका कोई भाव नहीं जगता। लेकिन, मैं समझता हूँ, मूर्ति-पूजा मानव स्वभावका अंग है। प्रतीकोंके प्रति हमारा सहज आकर्षण होता है। अन्यथा अन्य स्थानोंकी अपेक्षा गिरजाघरमें कोई अधिक गम्भीर क्यों हो उठता ? मूर्तियाँ पूजामें सहायक होती हैं। कोई भी हिन्दू मूर्तिको भगवान् नहीं समझता। मैं मूर्तिपूजाको पाप नहीं मानता।

ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे स्पष्ट हो गया होगा कि हिन्दू धर्म कोई वर्जनशील धर्म नहीं है। उसमें दुनिया के सभी नबियों और पैगम्बरोंकी पूजाके लिए स्थान है। वह साधारण अर्थोंमें प्रचारका ध्येय रखनेवाला धर्म नहीं है। बेशक, इसके अंचलमें कई जातियाँ समा गई हैं, लेकिन यह विकासकी स्वाभाविक प्रक्रियाकी तरह और अदृश्य रूपसे हुआ है। हिन्दूधर्म सभी लोगोंको अपने-अपने धर्मके अनुसार ईश्वरकी उपासना करनेको कहता है, और इसलिए इसका किसी धर्मसे कोई झगड़ा नहीं है।

हिन्दूधर्म के विषयमें मेरी यह धारणा है और इसलिए मैं अस्पृश्यताको माननेके लिए अपने मनको कभी भी तैयार नहीं कर पाया हूँ। मैं बराबर इसे हिन्दूधर्मका एक भारी दोष मानता आया हूँ। यह सच है कि यह दोष हमारे यहाँ परम्परासे चला आ