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हिन्दू धर्म

काव्य है। इस निरीह प्राणीमें करुणाके दर्शन होते हैं। वह करोड़ों भारतीयोंकी माँ है। गोरक्षाका मतलब है, ईश्वरकी सृष्टिके समस्त मूक प्राणियोंकी रक्षा। प्राचीन ऋषियोंने, वे जो भी रहे हों, मनुष्यके दया-भावको मानव जातिकी परिधिसे निकाल कर सृष्टिभरमें फैलानेका काम गायसे ही शुरू किया। मानवेतर प्राणियोंके प्रति करुणा रखनेकी आवश्यकता इस कारण और भी बढ़ जाती है कि वे मूक हैं। गोरक्षा विश्वको हिन्दू धर्मकी देन है। और जबतक गोरक्षा करनेवाले हिन्दू दुनियामें मौजूद हैं तबतक हिन्दूधर्म भी जीवित रहेगा।

और गोरक्षाका तरीका है उसकी रक्षाके लिए अपने प्राणोंकी आहुति देना। गायकी रक्षाके लिए मनुष्यकी हत्या करना हिन्दूधर्म और अहिंसाधर्मसे विमुख होना है। हिन्दुओंके लिए तपस्या द्वारा, आत्म-शुद्धि द्वारा और आत्माहुति द्वारा गोरक्षाका विधान है। लेकिन आजकलकी गोरक्षाका रूप बिगड़ गया है। उसके नामपर हम बराबर मुसलमानोंके साथ झगड़ा-फसाद करते रहते हैं, जब कि गोरक्षाका मतलब है मुसलमानोंको अपने प्यारसे जीतना। एक मुसलमान भाईने कुछ दिन पहले मुझे एक पुस्तक भेजी थी, जिसमें गौओं और उनकी सन्तानोंके प्रति बरती जानेवाली क्रूरताका विस्तृत वर्णन था। उसमें बताया गया है कि किस तरह हम उससे एक-एक बूंद दूध चूस लेते हैं, किस तरह हम उसे भूखों रखकर सुखा देते हैं, उसके बछड़े के साथ हम कैसा बुरा बरताव करते हैं, किस तरह हम उन्हें उनके हिस्से के दूधसे वंचित कर देते हैं, बैलोंके प्रति कितनी क्रूरता दिखाते हैं, किस तरह उन्हें बधिया कर देते हैं, मारते हैं और किस तरह उनपर शक्तिसे अधिक बोझा लाद देते हैं। अगर उन्हें वाणी होती तो हम उनके प्रति जो अपराध करते हैं उसकी वे ऐसी साक्षी देते कि दुनिया दाँतों तले अंगुली दबाने लगती। अपने मवेशियोंके प्रति हम जो दुर्व्यवहार करते हैं, उनमें से एक-एक इस बातका सूचक है कि हमारा न ईश्वरमें विश्वास है और न हम हिन्दू हैं। मैं नहीं समझता कि मवेशियोंकी हालत किसी भी देशमें उतनी बुरी है जितनी इस अभागे देशमें है। इसके लिए हमें अंग्रेजोंको दोष नहीं देना चाहिए। हम इसका दोष गरीबीके मत्थे भी नहीं मढ़ सकते। हमारे मवेशियोंकी इस दयनीय स्थितिका एकमात्र कारण यही है कि हम उनकी उपेक्षा -- अपराधपूर्ण उपेक्षा करते हैं। हमारे पिंजरापोल हमारे दयाभावके प्रमाण हैं सही, किन्तु साथ ही इस बातके सबूत भी हैं कि उस दयाभावको कार्य रूप देने में हम कितने ढीले हैं। ये पिंजरापोल आदर्श दुग्ध-शालाएँ और देशके लिए लाभदायक संस्थाएँ बननेके बजाय बूढ़े और बीमार पशुओंके लिए शरणस्थल बनकर रह गये हैं।

सच्चे हिन्दूकी पहचान तिलक नहीं है, मंत्रोंका सही उच्चारण नहीं है, तीर्थाटन नहीं है और न जाति-पाँतके नियमों और बन्धनोंका सूक्ष्म पालन ही। उसकी पहचान तो उसकी गो-रक्षाकी क्षमता है। गो-रक्षाके धर्मको स्वीकार करते हुए भी हमने गौओं और उनकी सन्तानोंको दासत्वकी स्थितिमें पहुँचा दिया है, और परिणामतः हम स्वयं भी दास बन गये हैं।

अब यह स्पष्ट हो गया होगा कि मैं अपनेको सनातनी हिन्दू क्यों समझता हूँ। गायकी चिन्ता मुझे किसीसे कम नहीं है। मैंने खिलाफतके मामलेको अपना इस-