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१११. स्थिति बहुत ठीक नहीं है !

पन्द्रह मास पूर्व लोगोंने दमनात्मक कानून समितिकी रिपोर्टका हर्षके साथ स्वागत किया होता। लेकिन अब किसीको इसकी परवाह नहीं कि ये कानून रद किये जाते हैं या बरकरार रखे जाते हैं। हमें अब उनसे कोई डर नहीं लगता, क्योंकि गिरफ्तारियों और जेलकी सजाओंका भय हमारे मनसे जाता रहा। अब हम किन्हीं खास कानूनों और विनियमोंको रद करानेकी कोशिश नहीं कर रहे हैं; कोशिश कर रहे हैं उस प्रणालीको जड़-मूलसे नष्ट कर देनेकी जिसके कारण इन कानूनों और विनियमोंका बनना सम्भव हुआ। अब हमें यह मालूम हो गया है कि (आम कानूनोंके अन्तर्गत भी) सरकार ( तनिक भिन्न ढंगसे) वह सब कुछ कर सकती थी जो उसने उन कानूनोंके अन्तर्गत किया है, जो रद किये जानेको हैं। आवश्यकता पड़नेपर सरकारके कानूनी सलाहकारोंने दण्ड प्रक्रिया संहिताके खण्ड १४४, १०७ और १०८ में ऐसी सम्भावनाएँ खोज निकाली हैं जिनका पहले सरकारको कोई एहसास नहीं था। तथ्य यह है कि अगर सामान्य कानूनको भी, भावनामें परिवर्तन लाये बिना, बदल लिया जाता है तो भारतके लोगोंको उससे कोई लाभ नहीं होगा।

इसलिए यद्यपि इस रिपोर्टमें जनताकी अभिरुचि नहीं है, फिर भी देशकी राजनीतिक स्थिति के अध्येताओंके लिए यह एक स्थायी महत्वका दस्तावेज है। कोई अत्यन्त प्रतिक्रियावादी असैनिक अधिकारी दस वर्ष पूर्व भी यह रिपोर्ट उसी भाषामें तैयार कर सकता था जैसी वह आज है। समितिका निष्कर्ष इस प्रकार है :

हालकी वारदातों तथा उस सम्भावित घटनाक्रमको ध्यान में रखते हुए, जिसे कोई भी अधिक से अधिक दुःशंकाके भावसे ही देखेगा, उन्हें (राजद्रोहात्मक सभाओंके निषेधका अधिनियम तथा भारतीय दण्ड विधान संशोधन अधिनियम, १९१८का भाग-२) कायम रखना जरूरी है।

मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जो भी दमनात्मक कार्रवाई की गई है उसकी स्वीकृति उसी "कठोर कर्त्तव्य-भाव" के अनुरोधसे दी गई है जिसके अनुरोधसे उपर्युक्त कानूनोंको कायम रखना है।

मैं यह नहीं मानता कि जिन अधिकारियोंने ये सारे दमनात्मक कानून बनाये उन्हें दमनकार्यमें बहशियाना आनन्दका अनुभव होता था। लॉर्ड कर्जन[१] निश्चय ही यही मानते थे कि बंगालका विभाजन सार्वजनिक हितमें है और जो लोग उसका विरोध करते हैं वे प्रगतिके विरोधी हैं। सर माइकेल ओ डायर सच्चे मनसे मानते थे कि शिक्षित वर्गके लोग मूर्ख हैं; वे अपना हित-अहित भी नहीं समझते हैं और ऐसे मामलोंमें दस्तन्दाजी करते हैं जिनके बारेमें उन्हें कोई जानकारी ही नहीं है, और दरअसल वे जन-साधारणके, जिसकी ओरसे बोलनेका वे दावा करते हैं, हित-

  1. भारतके वाइसराय; १८९९-१९०५।