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स्थिति बहुत ठीक नहीं है !

कामी नहीं हैं। जनरल डायर भी, निःसन्देह, यही मानते थे कि जबतक वे भारतीयोंको सबक न सिखा देंगे, यहाँ हर अंग्रेजकी जान खतरे में है। अलबत्ता, इन तीनों मामलोंमें हमने (और इस समितिके अधिकांश सदस्योंने भी) यह माना था कि अधिकारियोंका दिमाग विकृत हो गया था। वे बंगालकी स्वाभिमानपूर्ण भावनाको नहीं समझ सके थे। वे यह नहीं समझ सके थे कि उन शिक्षित भारतीयोंका मन किस वेदनासे व्यथित है जिन्हें अधिकारियोंकी तुलनामें जो सिर्फ सर्दियोंमें मौज-मजे करने के लिए पहाड़ोंकी ऊँचाइयोंपर से उतरकर जनता के बीच आ जाते हैं सर्वसाधारणकी आवश्यकताओंकी सहज ही कहीं अधिक अच्छी पहचान थी। वे नहीं समझ सके थे कि भारतीय कभी वैसा अमानवीय और कायरतापूर्ण आचरण कर ही नहीं सकते, जैसा कि एक सिपाही होते हुए भी जनरल डायरने उनके बारेमें सोचनेकी भूल की। उन दिनों हम ऐसा मानते थे कि भले ही जनता गलतीपर हो, लेकिन तब भी उसकी इच्छाकी अवहेलना करना अधिकारियोंके लिए अनुचित है। हम पूरे विश्वासके साथ कहा करते थे कि अपने हिताहितके सबसे उपयुक्त निर्णायक हम स्वयं हैं। लेकिन अब हममें से कुछके विचार बदल गये हैं। हममें से कुछ अब उसी स्थितिमें हैं, जो अधिकारियोंकी है। ये लोग अपने-आपको अज्ञानी जनसाधारणका हित-रक्षक समझते हैं और मानते हैं कि सिद्धान्तहीन आन्दोलनकारी, और यदि वे नहीं तो सचाईसे दूर कल्पना-लोकमें रहनेवाले कुछ व्यक्ति, उन्हें गुमराह कर रहे हैं; और इसलिए तीव्र ( और शायद अज्ञानपूर्ण ) विरोधके बावजूद वे "नई, सुधरी" कौंसिलोंको चलाये जा रहे हैं, और इसीलिए मलाबारके विद्रोहको मूल्यवान रक्त बहाकर दबा रहे हैं, यद्यपि हम उन्हें मलाबारमें मोपलोंको समझा-बुझाकर लूट-पाटके पागलपन भरे कामसे रोकने के लिए निःशस्त्र लोग भेजनेको तैयार हैं। वे सचमुच मानते हैं कि ऐसा करके वे देशकी सेवा कर रहे हैं।

इस तरह हम पहलेसे कोई अच्छी स्थितिमें नहीं हैं, बल्कि शायद उससे बुरी स्थिति में ही हैं। कारण, अब हमें न केवल एक विदेशी नौकरशाहीका सामना करना है, बल्कि एक राष्ट्रीय नौकरशाही से भी जूझना है। इस रिपोर्टका जोरदार विश्लेषण करते हुए लाला लाजपतरायने ठीक ही कहा है कि हम जो चाहते हैं वह यह नहीं है कि हमारे शासक बदल जायें, हम तो शासन प्रणाली में परिवर्तन चाहते हैं, जनता और राज्यके सम्बन्धों में तबदीली चाहते हैं। राज्य या तो जनताका प्रतिनिधि हो या फिर उसे खतम कर दिया जाये। रिपोर्टकी इस विचित्रताका कारण यह है कि गैर-सरकारी सदस्योंपर कोई जिम्मेदारी तो है नहीं, किन्तु वे सचमुच ऐसा मानते हैं कि वे हमारे हितोंको हमसे अधिक अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए जो जनसमुदाय पूरी तरह जग गया है, और जिसे अपना अधिकार समझता है उसे पानेके लिए वह कोई भी तकलीफ उठानेको तैयार है, उस जनसमुदायकी आकांक्षाओंको इस तरहकी टाँक-जोड़से कैसे तुष्ट किया जा सकता है ?

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ६-१०-१९२१