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१. अस्पृश्यता

शास्त्री वसन्तरामके उस पत्रपर[१] जिसमें उन्होंने अस्पृश्यताके सम्बन्धमें अपना निर्णय दिया था, अपने विचार प्रकट करते हुए अनेक लोगोंने मुझे पत्र लिखे हैं। यदि मैं इन पत्रोंको छापूं तो उससे बहुत स्थान घिरेगा। किन्तु इतने लोगों द्वारा की गई इन समीक्षाओंको मैं शुभ लक्षण समझता हूँ। सभी पत्र-लेखक इस प्रश्नका धार्मिक या तात्विक दृष्टिसे निर्णय कराना चाहते हैं। उनके पत्रोंसे प्रकट होता है कि उन्हें केवल व्यावहारिक निर्णयसे सन्तोष नहीं हो सकता। हिन्दू समाज अन्त्यजोंको बहुत-सी सुविधाएँ दे फिर भी यदि वह उन्हें मैलेका स्पर्श करनेके बाद नहा लेनेपर भी अस्पृश्य मानता रहे तो यह बात इन तात्विक निर्णय चाहनेवाले लोगोंको असह्य और पापपूर्ण लगती है। ये पत्र-लेखक सुधारक नहीं हैं। इनकी मान्यता यह नहीं है कि हमारी सब बातें खराब हैं और यूरोपकी सब बातें अच्छी हैं। ये लोग विवेकी और संयमी हैं, अपने आपको हिन्दू मानते हैं और इसका उन्हें अभिमान है। वे मर्यादाको प्रधान स्थान देते हैं। इस बातसे मुझे तो अतिशय हर्ष होता है; और उनके आग्रह्से लगता है कि हम अस्पृश्यताके पापसे जल्दी मुक्त होंगे।

हम शास्त्रका अर्थ करनेकी झंझटमें इतना ज्यादा फँस गये हैं कि हमने धूलका धान करनेके बजाय धानकी धूल कर दी है। हम चावलको छोड़कर छिलकेसे चिपट गये हैं। हमने मक्खन छोड़ दिया है और बेस्वाद मट्ठेके पीछे दौड़ रहे हैं। मेरे पास जो पत्र हैं उनसे पता चलता है कि अब हम ऐसे युगमें प्रवेश कर रहे हैं जिसमें हमें गीत नहीं गाने हैं, बल्कि काम करना है। वर्ण पाँच नहीं, चार हैं। अस्पृश्यता संयम नहीं है, वह वर्णाश्रमकी मर्यादा नहीं है। वर्णेतर लोगोंको भी अस्पृश्य मानना दयाधर्मं नहीं, बल्कि क्रूरता है। कोढ़से पीड़ित लोगोंको स्पर्श करनेसे आत्मा अशुद्ध नहीं होती, उलटे, यदि उनका स्पर्श सेवाभावसे किया जाये तो वह ऊँची उठती है। भंगीकी सेवा करना धर्म है। रोगसे पीड़ित भंगीकी शुश्रूषा पहले करना दया है। भंगीने मैला उठाया हो तो स्नान करना शौच क्रिया है; यह आवश्यक है; किन्तु यदि वह न नहाये तो इससे उसका अधःपतन नहीं होता। आवश्यकता होनेपर भंगीको स्पर्श न करनेमें पाप हो सकता है। जो भंगी नहा-धोकर आया है उसे आदरपूर्वक अपने पास न बैठाना पाप है और जो लोग यह मानते हैं कि भंगीको छूना पाप है यह उनका अज्ञान है। ऊपरके पत्रोंसे में देखता हूँ कि इस तरह के विचार अब बहुत व्यापक हो गये हैं। इन पत्रोंमें से एक पत्र में दे चुका हूँ। अब दूसरा पत्र श्री साकरलाल अमृतलाल दवेका[२]नीचे दे रहा हूँ:

अस्पृश्यता सम्बन्धमें शास्त्री वसन्तरामकी शास्त्रीय चर्चा प्रेमपूर्वक पढ़ी। किन्तु मेरे जैसा अ-शास्त्रज्ञ शास्त्रके भंवरजालमें भ्रमित न हो जाये इस दृष्टिसे

२९-१
 
  1. नवजीवन,१७-७-१९२१ में प्रकाशित।
  2. गुजरातके एक शिक्षाशास्त्री।