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पत्र: डी० बी० शुक्लको

जो आत्मशुद्धि की उसका अनुभव करूँ और पवित्र खादीधारी हजारों बहनोंके दर्शन करूँ।

लेकिन आप जानते हैं कि अभी तो मैं लाचार हूँ। इतना ही कह सकता हूँ कि पहला अवसर प्राप्त होते ही आ जाऊँगा। लेकिन मैं अत्यन्त लोभी बन गया हूँ, यह बात तो अब सारा हिन्दुस्तान जानता है। जबतक एक भी पुरुष विदेशी कपड़ेका इस्तेमाल करता है अथवा एक भी घर चरखेके बिना है अथवा एक भी गली करघे अथवा पींजनसे विहीन है तबतक मेरा लोभ शान्त नहीं हो सकता। आपने बहुत किया है लेकिन इतना तो नहीं कर पाये हैं, यह मैं जानता हूँ। इसीसे मेरा विशेष अनुरोध है कि सब लोग अन्य प्रवृत्तियोंको छोड़कर भी स्वदेशीको पूर्ण बनानेकी ओर ध्यान दें। स्वयंसेवक जबतक रुई पींजनेवाले तथा कातनेवाले नहीं बनते तबतक वे पूरा काम नहीं कर सकते, मैं अपनी अपूर्णताको देखते हुए ही यह कह सकता हूँ।

मैं सुनता हूँ कि काठियावाड़में अब भी अन्त्यजोंका तिरस्कार चालू है। उन्हें गाड़ीमें अभी भी तकलीफें उठानी पड़ती हैं। उनके साथ हम सगे भाई-बहनका-सा व्यवहार नहीं करते और जबतक यह प्रेम-भावना हममें जाग्रत नहीं होती तबतक आत्मशुद्धिकी बातको मैं कृत्रिम ही मानता हूँ। मैं प्रार्थना करता हूँ कि काठियावाड़ धर्मके नामपर चलनेवाली इस धांधलीका बहिष्कार करे।

मेरा विश्वास है कि काठियावाड़को ब्रिटिश भारतमें चल रहे आन्दोलनके अन्तर्गत जारी अन्य प्रवृत्तियोंको छूनेकी कोई जरूरत नहीं है। वहाँ किसी-किसी स्थान-पर राजा-प्रजाके बीच मन-मुटाव है, यह मुझे मालूम है। मुझे तो विश्वास है कि अगर लोग चुपचाप उपर्युक्त दोनों कार्योंमें जुटे रहेंगे तो दूसरी कठिनाइयाँ स्वयमेव दूर हो जायेंगी। इस बीच लोगोंको मेरी सलाह है कि जो कठिनाइयाँ आयें उन्हें वे सहन कर लें।

राजाओंकी स्थिति जनताकी अपेक्षा अधिक विषम है, ऐसी मेरी मान्यता है; और जब मैं देशी राज्योंमें चलनेवाली अन्धाधुन्धीकी बात सुनता हूँ तब मैं उसे ब्रिटिश साम्राज्य में प्रवर्तित महान अन्धाधुन्धीकी ही प्रतिध्वनि मानता हूँ। लेकिन हम इस समय इस प्रश्नमें जायें ही क्यों? जो अनिवार्य दुःख हैं, उन्हें हम अगर ईश्वरको पहचानते हैं तो उसकी ही झोलीमें क्यों न डाल दें? जो ईश्वरका भय रखता है वह अन्य प्रकारके भयसे मुक्त रहता है, इसलिए मेरी इच्छा है कि आप भय-मात्रको छोड़ दें।

आपके छोटे भाई
मोहनदास के प्रणाम

[गुजरातीसे]
गुजराती, ६-११-१९२१