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१७०. शिक्षा और असहयोग

सम्पादक


‘यंग इंडिया’


महोदय,
प्रसिद्ध पत्रकार श्री रामानन्द चटर्जी द्वारा सम्पादित बंगला-मासिक ‘प्रवासी’के कार्तिक-अंकम एस० सी०के हस्ताक्षरोंसे एक लेख छपा है, जिसमें रूसमें शिक्षाके क्षेत्रमें जो कार्य हो रहा है, उसका उल्लेख है। इस लेख एक अंश ऐसा है, जिसकी ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। मैं इसका अनुवाद नीचे दे रहा हूँ।
“किन्तु वर्तमान उथल-पुथलकी परिस्थितियोंमें भी रूसने ज्ञानको ज्योति जलाये रखी है―भले ही उसका प्रकाश मन्द हो। हमारे देश (भारत) के बुद्धिमान देशभक्तोंकी तरह वहाँ किसीने ऐसी कोई सलाह नहीं दी है कि अभी शिक्षाको बन्द रखा जाये। रूस जानता है, जैसे पानी और तेलमें परस्पर विरोध है, युद्ध और शिक्षामें परस्पर वैसा कोई बड़ा विरोध नहीं है।”
मेरा अनुवाद अच्छा नहीं है, इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ। किन्तु बंगलाकी उक्त कतिपय पंक्तियोंमें जो विचार दिया गया है, वह यही है।
मैं ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहा हूँ कि लेखकका आशय इन पंक्तियोंसे क्या है, और चूँकि श्री गांधी उन “बुद्धिमान देशभक्तों” में हैं, “जिन्होंने हमें फिलहाल अपनी शिक्षाको बन्द रखने” की सलाह दी है, अतः मैं उनसे नम्र निवेदन करता हूँ कि वे उक्त अंशके सम्बन्धमें अपने विचार व्यक्त करें। मेरे इस निवेदनका कारण यह है कि यही विचार हमारे समाजके एक वर्गका है, जो अपनेको “समझदार” और “विवेकशील” बताता है।

भवदीय,
फणीन्द्रनाथ दासगुप्त

पुरुलिया

“प्रवासी”ने जो विचार व्यक्त किया है, उससे मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। मेरी नम्र सम्मतिमें इससे एक ही साथ यह भी प्रकट होता है कि लेखकको इन “बुद्धिमान देशभक्तों” की स्थितिकी जानकारी नहीं है और यह भी कि उनके शिक्षा-सम्बन्धी विचार बहुत विकृत हैं। रूसी लोग अपनी वर्तमान संस्थाओंसे असहयोग नहीं कर रहे हैं, और फिर भी वहाँ युद्धकी स्थितिमें “ज्ञानकी ज्योति मन्द रूपमें ही जल रही है।” लेकिन वैसा तो हमारे असहयोग कार्यक्रम के अन्तर्गत खोले गये स्कूलोंमें भी हो रहा है। किन्तु जब इंग्लैंडकी जर्मनीसे लड़ाई चल रही थी, तब वहाँ क्या हुआ