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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

जे० भट्टाचार्य: केवल यह दिखानेके लिए ही कि आपका पत्र कितना शानदार है, काश! मैं उसे प्रकाशित कर पाता। लेकिन मेरा खयाल है कि उसे गलत समझा जायेगा। देशमें कुल मिलाकर बहुत अधिक अन्धानुकरण चल रहा है। आपने जो उदाहरण दिये हैं वे इस आन्दोलनपर लागू नहीं होते, क्योंकि इसमें तो प्रत्येक व्यक्तिको विशेष रूपसे अपने-आप सोच-विचारकर काम करनेकी प्रेरणा दी जाती है। स्वराज्यकी मेरी कल्पना यह नहीं है कि बहुतसे लोग एक व्यक्तिका अन्धानुकरण करें। कवि-[रवीन्द्रनाथ ठाकुर] ने इस प्रवृत्तिका ही विरोध किया है और वह उचित है; सर्वमान्य नेताओंकी आज्ञाको सोच-समझकर माननेका विरोध नहीं किया है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-११-१९२१
 

१६९. व्याख्याके सिद्धान्त

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयके प्रिंसिपल श्री आ० बा० ध्रुवने ‘वसन्त’ नामक गुजराती मासिकमें शास्त्रोंकी व्याख्या करनेके सही तरीके और उनमें अस्पृश्यताका जो स्थान है उसके बारेमें उस तरीकेको लागू करने के सम्बन्धमें एक बड़ा विद्वत्तापूर्ण लेख लिखा है। मेरे पास बड़े लम्बे-लम्बे पत्र आये हैं जिनमें से कुछका रूप तो सैद्धान्तिक और पारिभाषिक है और कुछ मेरे विचारसे ऐसे व्यक्तियोंकी मिथ्या धारणापर आधारित हैं जो शास्त्रोंसे बिलकुल अनभिज्ञ हैं। मैं यह जानता हूँ कि लिखनेवालोंने ये पत्र सदुद्देश्योंसे प्रेरित होकर ही लिखे हैं। ‘यंग इंडिया’ जैसे छोटेसे साप्ताहिक-पत्रके स्तम्भोंमें इन सब पत्रोंको प्रकाशित करना तो सम्भव नहीं है। परन्तु मैं इन पत्र-लेखकोंको किसी प्रामाणिक विद्वान्‌के जरिये अवश्य सन्तुष्ट करना चाहता हूँ। मेरे विचारसे आचार्य ध्रुव ऐसे ही प्रामाणिक विद्वान् हैं। उनकी विद्वत्ता उतनी ही निर्विवाद है, जितनी उनकी ईमानदारी और निष्पक्षता। जो लोग जल्दीसे-जल्दी अस्पृश्यता के प्रश्नका न्यायपूर्ण हल ढूंढ़ना चाहते हैं उनके लिए उनका यह लेख निश्चय ही रुचिकर होगा। मैंने उसका अनुवाद ‘यंग इंडिया’ के लिए करा लिया है। पण्डित मदनमोहन मालवीयजी और ये विद्वान् प्रिंसिपल महोदय, जो कट्टर हिन्दू होनेका दावा करते हैं। और कट्टर हिन्दू माने भी जाते हैं, दोनों ही हिन्दू धर्मपर लगे इस दागको मिटाने के हार्दिक समर्थक हैं, इस बातको देखकर मुझे जितनी शान्ति मिली है उतनी और किसी बातसे नहीं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-११-१९२१