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न्यायका स्वांग

स्वामीजीकी निर्दोषितापर पूरा विश्वास था। और फिर उसने आवेशमें आकर वहाँसे गुजरनेवाले प्रत्येक यूरोपियनपर तथा यूरोपीय हैट पहने हुए यात्रीपर अपना गुस्सा उतारा। मार खानेवाले यूरोपीयोंमें विधान सभा के सदस्य श्री प्राइस भी थे। रोषका चाहे कितना भी बड़ा कारण रहा हो, स्वामीजीकी निर्दोषिता कितनी भी असंदिग्ध रही हो, उनका पद चाहे जो कुछ भी रहा हो, भीड़को क्रोधित कदापि न होना चाहिए था। जबतक हम बड़ेसे-बड़ा कारण होते हुए भी क्रोधको वशमें रखने में समर्थ न हों तबतक विजय असम्भव है। गोलियोंकी वर्षाके बीच शान्ति रखना सैनिकका अनिवार्य गुण है। यदि असह्योगी बड़ीसे-बड़ी उक्साहट के बीच भी शान्त न रह सके तो वह किस कामका ? हमें अपनी चुनी हुई शैय्यापर ही सोना होगा। हमें सरकारसे हर परिस्थिति में शान्त रहनेकी अपेक्षा न करनी चाहिए। हमारे समान उसके भी अपने सिद्धान्त हैं। वह एक हदतक ही शान्त रह सकती है। जबतक हम खिलवाड़ करते दिखेंगे, तबतक वह खामोशी अख्तियार किये रहेगी। ज्योंही ऐसा मालूम होगा कि हम सचमुच कुछ करने जा रहे हैं उसी क्षण दमन शुरू कर देना उसकी दृढ़ नीति है। स्वामीजी और उनके अनुयायी अपनी निष्ठा में गम्भीर थे इसलिए सरकारने वार किया। यही हमारी परीक्षाका अवसर था और हम उसमें असफल हुए। यह कहना कि प्रोफेसर वासवानी और उनके कर्मठ कार्यकर्ताओंने भीड़का क्रोध रोकनेका प्रयत्न किया और कुछ हदतक सफल भी हुए और अधिक भीषण घटनाएँ घटित होनेसे रोक सके, सच तो है परन्तु है असंगत। जिस बातपर हमें ध्यान देना चाहिए वह यह है कि भीड़का आत्म-नियन्त्रण टूटा ही क्यों ? लोगोंका वहाँ इकट्ठा होना कोई जरूरी न था। इकट्ठा होनेपर उसे पूरे समय शान्त और स्थिर रहना चाहिए था। भीड़का अधिकार तो यह था कि वह अपना क्रोध विदेशी कपड़ोंको त्यागकर घरोंमें कपड़े बुनने और शराबकी दूकानोंपर धरना देनेका निश्चय करके उतारती। सरकारपर सांघातिक वार वही होता। वस्तुतः हुआ ऐसा कि उसके निष्फल रोषके फलस्वरूप उस आन्दोलनकी ही, जिसके पक्षमें वे प्रत्यक्षतः काम कर रहे थे,भारी क्षति हुई।

ठीक-ठीक रूपसे समझ लिया जाये कि जबतक भीड़ अनुशासित सैनिकोंके समान व्यवहार करना न सीखे, सविनय अवज्ञा असम्भव है। और हम सविनय अवज्ञाके मार्गको तबतक अपना नहीं सकते जबतक हम प्रत्येक अंग्रेजको इस बातका विश्वास दिला न सकें कि वह भारतमें भी अपने घरके समान ही सुरक्षित है। कोरा आश्वासन देना काफी नहीं है। प्रत्येक अंग्रेज स्त्री और पुरुषको यह लगना भी चाहिए कि उसकी सुरक्षाको कोई भय नहीं है और उसका कारण उनकी संगीनोंका बल नहीं बल्कि हमारा जीवित सिद्धान्त है। यह शर्त सफलताके लिए ही लागू नहीं है बल्कि वर्तमान रूपमें आन्दोलन चलानेकी हमारी क्षमताकी भी यही शर्त है। असहयोग संघर्ष चलानेका और कोई दूसरा तरीका नहीं है।

हम स्वामीजीके विदाईके सन्देशको ध्यान में रखें: “मद्यपानके विरुद्ध आन्दोलन जारी रखा जाये और भंगियोंकी मदद की जाये।" इससे और अच्छा सन्देश हो ही नहीं सकता था। यदि हम मद्य-निषेध कर सकें और भंगीको अपने स्तरसे -- यद्यपि वह स्तर नीचा है-- उठा सकें, तो हम स्वराज्य के बहुत निकट आ जाते हैं।